वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 55
From जैनकोष
णेव य जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अत्थि जीवस्स।
जेण हु एदे सव्वे पुग्गलदव्वस्स परिणामा ।।55।।
202. जीवस्थानों से जीव की विविक्तता―यहाँ तो जीव के जीवस्थान भी नहीं हैं । जीवसमास 14 होते हैं―(1) एकइंद्रिय सूक्ष्म जीव, (2) एकेंद्रिय बादर जीव, (3) दो इंद्रिय जीव, (4) तीन इंद्रिय जीव, (5) चार इंद्रिय जीव, (6) पांच इंद्रिय सैनी, (7) पाँच इंद्रिय असैनी । बादर जीव वह कहलाते हैं जो शरीर अन्य पदार्थों से टकरा सके या रुक सके अथवा बादर के उदय से जो हो वह बादर शरीर है । एवं सूक्ष्म जीव जो शरीर अन्य के द्वारा नहीं रुकते उसे सूक्ष्म कहते हैं । अथवा सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जो शरीर हो वह सूक्ष्म शरीर है । ये सातों जीव पर्याप्त और अपर्याप्तक के भेद से दो तरह के होते हैं । इस तरह 14 जीवसमास होते हैं । जीव जब तक शरीर बनने के पूर्व तक रहता है तब तक अपर्याप्त कहलाता है तथा जब शरीर बनने की शक्ति पूर्ण हो जाती है तो पर्याप्त कहलाता है । मनुष्य गति जीव के नहीं है । जीव का स्वभाव अनादि से अनंत काल तक सदा रहने वाला है । आत्मा में श्रद्धा और चारित्र गुण होते हैं । उनके विकार की हीनाधिकता में नाना स्थान होते हैं । भरत चक्रवर्ती जब दिग्विजय करके वृषभाचल पर्वत पर गये तो वहाँ नाम खोदने को थोड़ी भी जगह नहीं मिली । तब वे सोचते हैं, इतने चक्रवर्ती हो गये हैं मैं अकेला थोड़ा ही हुआ हूँ । तब वहीं मान शिथिल हो जाता है और वे अनुभव करते हैं―खुद का प्रभु खुद यह स्वयं आत्मा है । गुणस्थान भी जीव के नहीं हैं । किसी का एक बच्चा था, वह तास खेलकर आया । तब किसी व्यक्ति ने बच्चे की माँ से शिकायत की―तेरा बच्चा तास खेलने गया था । उस समय उसकी माँ उत्तर देती है―मेरा बच्चा तास खेलना नहीं जानता दूसरे लड़के ने अपने साथ में खिलाया सो वह खेला । यहाँ भी माँ अपने बच्चे को शुद्ध ही देखना चाहती है । जीव में अन्य पदार्थ का संबंध नहीं है ।
203. गुणस्थानों से जीव की विविक्तता―जीव के गुणस्थान भी नहीं हैं । गुणों के स्थान अपूर्ण दृष्टि में बनते हैं । जीव निश्चयत: परिपूर्ण है । जब मोहनीय कर्म को विशिष्ट प्रकृति के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम की दृष्टि करके देखा जाता है तो आत्मा में इन गुणस्थानों की प्रतिष्ठा है । सो न तो उदयादि जीव के हैं और न गुणस्थान ही जीव के हैं । दर्शन मोह के मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से मिथ्यात्व गुणस्थान होता है । दर्शनमोह के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम के बिना सासादन-सम्यक्त्व नामक गुणस्थान होता है । दर्शन मोह की सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय में (जो कि क्षयोपशमवत् मंदानुभागरूप है) सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान होता है । दर्शन मोह व अनंतानुबंधी 4 इन सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय या क्षयोपशम के होने पर व साथ ही अप्रत्याख्यानावरण के उदय होने पर अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान होता है । यदि अप्रत्याख्यानावरण का अनुदय व प्रत्याख्यानावरण का उदय हो तो देशविरत गुणस्थान होता है । यदि प्रत्याख्यानावरण का अनुदय हो तो संज्वलन के उदय में सकलव्रत होता है । देखिये ये सब स्थान औपाधिक हैं । सबसे कठिन अनंतानुबंधी कषाय है । उसके लक्षण का दिग्दर्शन कीजिये । देखो धर्म कार्य आ पड़े तो उसमें भी खर्च न किया जावे उसे अनंतानुबंधी लोभ कहते हैं । मैं महान धर्मात्मा हूँ, इस तरह का अहंकार आना अनंतानुबंधी मान है । धर्म कार्य करते हुए मायाचारी आना अनंतानुबंधी माया है । कोई धार्मिक कार्य किया और उसमें कहना यह सब आपकी बदौलत है, या यह कार्य आपके दास ने किया है इसमें भी कषाय छुपा हुआ है ।
204. पर के भोगने के भ्रम का क्लेश―एक माता पिता के चार लड़के थे, चारों जवान थे । उनके ऊपर गरीबी आ गई । गरीबी काटने का उपाय सोचा, तो पास ही गाँव में उनकी मौसी रहती थी । उसके यहाँ जाने का सबने निश्चय किया और चारों मौसी के यहाँ चल दिये । मौसी के यहाँ जाकर बोले―मौसी मौसी हम आ गये । मौसी बोली अच्छे आये । क्या खाओगे? जो बनाओगी मौसीजी सो खायेंगे । तब मौसी ने कहा मंदिर जाओ नहाओ आदि । चारों लड़के कपड़े उतारकर मौसी के घर रख गये थे । मौसी ने सोचा भोजन बनाने को सामग्री तो है नहीं । इसलिए उन भाइयों के कपड़ा लेकर गहने रखे तब भोज्य सामग्री लाई और भोजन में बढ़िया बढ़िया माल बनाया । चारों भाई आये, उन्हें भोजन करने को बैठाया । चारों भाई सोचे अच्छा माल मिला खाने को । मौसी कहे, खाते जाओ बेटा तुम्हारा ही तो माल है । भोजन करने के बाद उठे तो कपड़े नहीं हैं पहनने को । पूछा मौसी कपड़े कहाँ रखे हैं? उत्तर मिला तुम्हें भोजन ही तो रखकर कराया है । 50) रु0 कर्ज में लिये तब भोजन बनाया था । तो देखो वे लड़के खा तो रहे थे अपना ही माल, किंतु भ्रम वह कर रहे थे कि हम मौसी का माल खा रहे हैं । इसी तरह हम ज्ञानानंदरूपी माल स्वयं का भोग रहे हैं, किंतु मानते हैं पर से ज्ञान, आनंद आया, बस इस ही का तो दुःख है ।
205. आत्महित का साधन बना लेने में विवेक―आत्मा में उठने वाली तरंगें पुद्गल की हैं । रस गंधादि पुद्गल की तरफ हैं । शरीर यहीं पड़ा रहेगा, जीव चल देगा । एक देश में ऐसी प्रथा थी किसी व्यक्ति को राजा चुन दिया जाता और 6 महीने राज चलाना पड़ता था । बाद को उसे जंगल में छोड़ दिया जाता । एक बुद्धिमान राजा था, उसने सोचा 6 महीने बाद दुर्गति होगी अतएव दुर्गति से बचने का प्रबंध पहले ही क्यों न कर लूं । तो उसने राजा होने की ताकत से 6 महीने के भीतर जंगल में आलीशान मकान बनवा लिया, जंगल में नौकर चाकर भेज दिये, खेती की योजना करा दी, भोजन सामग्री, सोना, चाँदी, कपड़े, धनादि इच्छित पदार्थ भेज दिये । अब बतावो इस राज्य के छोड़ने के बाद भी क्या दुःख रहेगा? मनुष्य गति इसी तरह मिली है तथा इसका यही हाल है । इसमें इतने समय तक हम जो करना चाहें सो कर सकते हैं । बाद में सब ठाठ यहीं पड़ा रह जायेगा । जिन जीवों ने पुद्गल से भिन्न आत्मा को पहचाना उन्होंने निज कार्य सिद्ध कर लिया, अपना स्थान उत्तम बना लिया । अन्यथा यह वैभव कब किसको नहीं मिला, पर सच्चा आत्मलाभ नहीं मिला ।
206. मोही पर पौद्गलिक प्रभाव―एक राजा था । वह मुनि के पास गया और पूछने लगा । “मैं मरकर अगले भव में कौन होऊंगा?” मुनि महाराज ने कहा―तुम मरकर अपने ही संडास में कीड़े होगे । तब वह राजा अपने पुत्रों से कह गया जिस समय मैं मरूं तो संडास में कीड़ा होऊंगा सो तुम अमुक समय पर कीड़े को मार डालना । राजा मरकर संडास में कीड़ा पैदा हो जाता है । तब पुत्र मारने को गये । मारने के अवसर पर कीड़ा शीघ्र टट्टी में घुस जाता है प्राण बचाने के लिये । इस मोही जीव का यह हाल है । नरक गति के जीव मरना चाहते हैं पर बीच में मरते नहीं । मनुष्य आदि जीव मरना नहीं चाहते सो वे बीच में भी मर जाते हैं । यह पुद᳭गल का ठाठ है । आत्मा में जो क्रोधादिक भाव पैदा होते हैं वे जीव के नही हैं । जीव का तो एक शुद्ध चेतनास्वरूप है । किसी ने किसी से पूछा―आपका बड़ा लड़का कौन है, मझला कौन है और छोटा लड़का कौन है? वही एक है बड़ा, मझला और छोटा । अर्थात् चेतना के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । जिसमें मिलना और गलना पाया जावे उसे पुद्गल कहते हैं । ऐसे पुद्गल से अमूर्त आत्मा का तादात्म्य कैसे हो सकता है ? पुद्गल में जीव एकमेक नहीं होता । आत्मा का शुद्ध तत्त्व चेतना है । मैं एक चेतना मात्र हूँ, यह भान हो जावे तब शुद्ध पर दृष्टि जायेगी ।