वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 27
From जैनकोष
त्यक्त्वैवं बहिरात्मानमंतरात्मव्यवस्थित:।भावयेत्परमात्मानं सर्वसंकल्पवर्जितम् (त)।।27।।मुमुक्षुवों का कर्तव्य व पूर्वस्थिति का वर्णन―अब तक जो वर्णन किया गया है वह बहिरात्मापन का त्याग हो और अंतरात्मा में अवस्थान बने, इस उद्देश्य से वर्णन हुआ। इस वर्णन के पश्चात् अब इस श्लोक में यह कहा जा रहा है कि इस प्रकार मुमुक्षुजनों को बहिरात्मा को छोड़कर अंतरात्मा में व्यवस्थित होते हुए सर्वसंकल्पों से रहित इस परमात्मा की भावना करनी चाहिए। बहिरात्मा अवस्था कितनी घोर अज्ञान अंधेरी की अवस्था है कि जहाँ ऐसी भ्रम बुद्धि और बहिर्मुखी वृत्ति हो जाती है कि अपने स्वरूप का तो रंच झुकाव भी नहीं रहता, भान भी नहीं रहता। जिस देह में पहुंचता हैं उस ही देह को ‘यह मैं हूँ’ ऐसा मानने लगता है और जिस देह से रहित हूँ उस देह के योग्य जो प्रवृत्तियां होती हैं वे बन जाती हैं। आज यह जीव मनुष्यभव में है तो मनुष्यों जैसा आहार किया करता हूँ। रोटी साग आदि बना बनाकर खाता है और मरकर हो जाय पशु तो वहाँ घास ही उसे प्रिय हो जाती है।पर्यायबुद्धि―कोई स्त्री के देह में जीव है तो उसकी बोलचाल मैं जाती हूँ, मैं करती हूँ ऐसी हो जाती है। कैसा अभ्यास हो जाता है ऐसा बोलने का। कोई स्त्री यों नहीं बोलती है कि मैं जाता हूँ, मैं करता हूँ, मैं पढ़ता हूँ, और कोई पुरूष भी ऐसा न बोलता होगा कि मैं जाती हूँ, मैं करती हूँ, मैं पढ़ती हूँ। कैसा अभ्यास हो जाता है ? एक कन्या जो खूब स्वच्छंद खुले सिर फिरा करती है, विवाह होने के बाद एक मिनट में ही ऐसी कला आ जाती है, न उसे कोई सिखाने गया, न उसकी मां को ही सिखाने का मौका मिला, न सास ने सिखा पाया, पर लुक छिपकर जाना, घूँघट करके चलना सिमिटकर चलना, ये सभी कलाएं अपने आप आ जाती है। तो यह जीव जैसा चित्त में विकल्प करता है उसके अनुसार उसकी वृत्ति भी बन जाती है।बहिरात्मावस्थाकीय भूलें―बहिरात्मा अवस्था में मूल भूल यह हुई है कि इसने अधिष्ठित देह को ‘यह मैं हूँ’ ऐसा माना व द्वितीय भूल यह हुई है कि परदेह को यह परजीव है, ऐसा माना है। फिर तीसरी भूल यह हुई है कि इन देह देहों के नाते से पुत्र, मित्र, स्त्री आदिक संबंध माना है, चौथी भूल यह हुई है कि धन वैभव को इसने अपनाया और बड़ी मूढ़ता भरी चेष्टाएं कीं। आखिरी भूल यह है कि इसने अपना नाम चाहा; कीर्ति, प्रशंसा, पोजीशन की चाह बनायी है। सब विडंबनावों से त्रस्त यह जीव जब कभी गुरूप्रसाद से सत्संग में ज्ञानाभ्यास द्वारा जान पाया कि और सर्वजीव सर्वपदार्थ स्वगुणपर्यायात्मक हैं और परिपूर्ण है। यहाँ किसी भी पदार्थ का किसी अन्य पदार्थ के साथ कोई संबंध नहीं है तो पर की ओर से विकल्प हटा और ऐसी निर्विकल्प स्थिति के बल से अपने आपमें विश्राम पाया और वहाँ जो आनंद का अनुभव हुआ, ज्ञानप्रकाश हुआ, उसके कारण इसने अंतरात्मा में व्यवस्थित होने की स्थिति बनाली, अपने आपको स्वरूप को अनेक उपायों से देखा, साधा, इस मेरे का कौन दूसरा है, कौन सुख दुःख का साथी है, कौन मेरी परिणति को कर सकने वाला है ? जैसे यह मैं बाहर में किसी दूसरे का कुछ नहीं किया करता हूँ यों ही समस्त दूसरे मेरा कुछ भी नहीं किया करते हैं। ऐसा बोध बनता तो अपने आत्मा में यह व्यवस्थित हो लेता।प्रबुद्धता―अब देह में आत्मबुद्धि न रहने से यह ज्ञाता विदेह होने के निकट जाने लगा। इसे अब उन वृत्तियों में पछतावा आने लगा जिन वृत्तियों को यह हर्षपूर्वक ज्ञान से पूर्व अपनाता था। विषयों से इसे वैराग्य आया, ज्ञान को संभालने का बहुत बड़ा यत्न होने लगा। अब किसको सोचे, किसको बोले, क्या करे, सब कुछ असार दिखने लगा तथा यत्नपूर्वक मन, वचन, काय की क्रियावों को रोककर अपने आपमें अपने दर्शन का अवकाश पाने लगा, बारबार आत्मीय आनंद का अनुभव लेने लगा ऐसा ज्ञानीसंत, इस कारण परमात्मतत्त्व की और कार्यपरमात्मतत्त्व की भावना में रत रहने लगा।पर की अविश्वास्यता―इस लोक में मेरा कौन सहाय है, जिस पर हम पूर्ण भरोसा कर सकें कि अब कोई धोखा न होगा। जिन-जिन से हित मान रक्खा हो, जिन जिनको अपना मान रक्खा हो उन सबके निकट जा जाकर उपयोग द्वारा इस प्रश्न का समाधान पायें कि कौन मेरा सहाय होगा ? सभी जीव केवल अकेले ही अपने सुख और दुःख को भोगा करते हैं। जन्मता है तो अकेला, मरता है तो अकेला, पुण्य पाप करता है तो अकेला, संसार में रूलता है तो अकेला, संसार में विरक्त होता है तो अकेला और मुक्त होता है तो अकेला। दूसरा कोई दूसरे का साथी बन जाय यह तो वस्तु के स्वरूप में ही नहीं है। जैसे बच्चों में आपस में दोस्ती होना और दोस्ती मिटना यह घंटे में 10 बार हो जाता है। बीच में अंगुलियां मिलायीं दोस्त बन गए और छिगुली से छिगुली मिलायी दोस्ती कट गयी। यहाँ भी जब कभी कोई विषयों के साधने में साधक हुआ तो लो दोस्ती हो गयी और जब मन की अभिलाषावों में बाधक हुआ तो लो दोस्ती कट गयी। किसका विश्वास किसका सहारा लिया जाय कि फिर हमें दूसरे विचार न बदलने पड़ें, न कोई कार्यक्रम बने।वाह रे समागम―इस लोक में 343 घन राजू प्रमाण का विशाल क्षेत्र पड़ा हुआ है जिस क्षेत्र के सामने यह पूरा नगर अथवा यह पूरा देश या यह वर्तमान के भूगोल में मानी हुई पूरी दुनिया यह सब इतने भी नहीं है जितने कि समुद्र की एक बूंद हो। इतनी भी गिनती नहीं है। समुद्र की जितनी बूंद है उनमें से एक बूंद जितने हिस्से में बैठे उतना भी हिस्सा दुनिया के क्षेत्र के मुकाबले में आज की परिचित दुनिया नहीं है। फिर यहाँ के मरे कहीं गए, फिर क्या रहा समागम ? जहाँ यह जीव पहुंचता है वहीं की सारी बातें करने लगता है। कौनसी जगह सारभूत है और कौनसा समागम सारभूत है। सुकौशल की मां जिनका पुत्र से इतना तीव्र स्नेह था कि उसने स्नेह के कारण अपने महल में मुनियों का प्रवेश भी निषिद्ध कर दिया था कि कहीं साधु को देखकर अथवा इनके ही पिता मुनि हुए हैं वे ही आ गए तो उस रूप को देखकर कहीं पुत्र भी न विरक्त हो जाय ? इतना तीव्र अनुराग था, और जब सुकौशल विरक्त हो गए तो मां को बड़ी वेदना हुई, हाय पुत्र भी चला गया। उस आर्तध्यान में मरकर सुकौशल की मां सिंहनी हुई और सुकौशल के विषाद में गुजरी थी सो उस सुकौशल को दुश्मन मानकर ध्यान में बैठे हुए सुकौशल को सिंहनी ने पंजा मारा और मुख से भक्षण किया। उनको उस समय केवलज्ञान हो गया, वह तो मुक्ति पधारे। पर देखो तो जो पहिले भव में प्यारा पुत्र था, दूसरे भव में उसी पर ही प्रहार किया उसकी ही मां ने सिंहनी के रूप में।
ज्ञानी का साहस―यह आत्मा तो पकड़ा भी नहीं जाता, रोका भी नहीं जाता, इसमें कहां नाम खुदा है कि अमुक चेतन पदार्थ मेरा मित्र है या अमुक चेतन पदार्थ मेरा शत्रु है। भ्रम हो गया है सो नाना चेष्टाएं की जा रही हैं। रातदिन मोह के प्रोग्राम-यह लल्ला यह लल्ली, इन्हें बुलावो, सत्कार सेवा करो, रात दिन मोह-मोह की ही स्थिति गुजर रही है। भ्रम हुआ ना, इस कारण उसके ही अनुकूल चेष्टाएं चल रही हैं। किसी भी समय यह मनुष्य एक मिनट को भी सबका ख्याल भुलाकर ये सब पर हैं―अपना उपयोग मैदान साफ कर ले कि यहाँ किसी भी परतत्त्व का विकल्प नहीं करना है, तो यह बड़े हित की बात है। ऐसी हिम्मत ज्ञानी पुरूष में होती है। यह अशक्य बात नहीं है, की जाने वाली बात है। जिसके मोह नहीं रहा वह तत्त्व का यथार्थ ज्ञाता है और घर में रहकर भी सारी व्यवस्था बनाता है तो भी जिस क्षण आत्महित के अर्थ आत्मा को सुलझाने की सावधानी बनाता है तो एक भी अणुमात्र उसके उपयोग में नहीं ठहरता। यह स्थिति कुछ ही समय को होती है फिर अन्य की स्थिति का विचार व प्रबंध कर लेता है। ठीक है, पर वह इस योग्य है कि वह जब चाहे तब अपने उपयोग को विशुद्ध बना ले।शक्य कर्तव्य―भैया ! है क्या ? यहाँ भी तो आप सब बिल्कुल अकेले अकेले बैठे हैं। कोई लिपटा भी है क्या, कोई आपके साथ में पड़ा भी है क्या। बस आप अकेले बैठे हैं। इसमें ही अपने आपके उस अकेले स्वरूप की दृष्टि बनाना है। कौनसी कठिनाई आती है ? रही भीतर में पर के आकर्षण की कठिनाई सो ज्ञानी संत ने यह यथार्थ प्रकाश पा लिया कि प्रत्येक द्रव्य पूर्ण स्वतंत्र है। किसी भी समय सर्वपदार्थों का विकल्प दूर कर केवल आत्मदृष्टि का कार्य ज्ञानी गृहस्थ भी कर सकता है। इतना तो आप लोग देखते ही हैं कि कोई गृहस्थ बहुत अधिक फंसा हुआ है, किसी को ममत्व कम है, कोई अधिक परवाह नहीं करता। तो जब ऐसा तारतम्य हम यहाँ के पुरूषों में देखते हैं तो क्या कोई ऐसा ज्ञानी है कि किसी क्षण चाहे तो सर्व पर उपयोगों से हटकर केवल ज्ञानमात्र आनंदघन निज कारणपरमात्मतत्त्व की अभेद उपासना कर सके। है, गृहस्थ भी है ज्ञानी संत जैसा।ज्ञान कला की देन―भैया ! सब कुछ ज्ञानकला पर निर्भर है। लोक सुख से सुखी होना भी ज्ञान की देन है और दुःख और विपदा में विषाद मानना भी ज्ञान की ही एक परिणति की देन है। और सर्वप्रकार के क्षोभों से रहित होकर आत्मीय आनंद अनुभवने की भी देन इस ज्ञान की कला पर है। बड़े प्रेम से भी हों, आजीविका भी ठीक हो और सर्वप्रकार से साधनसंपन्नता में रहते हों, फिर भी कल्पना में कुछ कुछ बातें तृष्णा की विचार कर यह जीव अपने को दुःखी अनुभवने लगता है। जिस मनुष्य के पास जितना जो कुछ वैभव है उस वैभव से अधिक वैभव के प्रति तृष्णा रखने से उस वैभव का भी सुख भोग नहीं पाता। जब चित्त इससे अधिक संपत्ति के लाभ में लगा है तो पाई हुई संपदा का आनंद कहां रहा ? तो वर्तमान मिले हुए समागम का भी लाभ खो देता है यह मोही तृष्णावान् पुरूष।वर्तमान स्थिति में ही धर्मपालन का विवेक―कोई सोचे एक धार्मिक प्रोग्राम बनाने की धुन में कि मैं इतना वैभव और बना लूं, इतना और इकट्ठा कर लूं फिर तो आराम से खूब धर्म साधन करेंगे। ऐसी दृष्टि जिनकी वर्तमान में है तृष्णा वाली दृष्टि, उससे कहां यह आशा की जा सकती है कि उतना भी मिल जाय जितना कि उसने संकल्प किया है तब भी तृष्णा से मुक्ति हो जाय। यह आशा नहीं की जा सकती है। धर्मपालन का तो यह हिसाब है। इस ही समय कैसी भी स्थिति हो उस ही स्थिति में विभाग बंटवारा बनाकर, उसमें ही गुजारे का साधन बनाकर धर्मपालन में लग जाइए। धर्म का पालन पैसे द्वारा साध्य नहीं है। वह तो परिणाम द्वारा साध्य है, किंतु हां, इतना अवश्य है कि जिनके पास वैभव है, संचय करते हैं वे यह सोचें कि धर्म तो बातों से मिलता है, दमड़ी खर्च करने की क्या जरूरत है ? यह धन तो ज्यों का त्यों बना रहे। दान में, भोग में उपकार में काहे को खर्च करें, धर्म तो भावों से बनता है। तो जिसको ऐसी तृष्णा का परिणाम लगा हुआ है वह पुरूष कैसे धर्मपालन कर सकेगा ? वर्तमान स्थिति में ही सुलझेरा करना है।ज्ञातृत्व में क्लेश का क्षय―यह ज्ञानप्रकाश जो अनाकुलता का साथी है, जब उपयोगगत होता है तो इसके रागादिक क्षीण हो जाते हैं, विडंबनाएं समाप्त हो जाती हैं। ऐसे परमशरणभूत परमपिता एकमात्र आत्मसर्वस्व निज चैतन्यस्वभाव का शरण छोड़कर अन्यत्र कहां शरण में जाते हो ? जैसे फुटबाल को कहीं शरण नहीं है, जिसके पास जायगी वहीं से लात खायेगी। फुटबाल तो लात खाने के लिए ही बनी है। नाम है उसका फुट से धक्का लगे ऐसा बाल। तो जैसे फुटबाल धक्के ही खाती रहती है, कोर्इ शरण नहीं रखता, यों ही यह मुग्ध जीव व्यामोही जीव जगह जगह धक्के ही खाता रहता है। इसे कोई शरण नहीं रख सकता है, और धक्का क्या खाता है, खुद ही अज्ञानी बनकर पर को शरण मानता है और है नहीं वह शरण, इसलिए धक्का समझता है, नहीं तो धक्का काहे का ? ज्ञाता दृष्टा रहे, फिर काहे का क्लेश ?
बड़ा अजायबघर―भैया ! यह संसार अजायबघर है। अजायबघर में दर्शक को देखने भर की इजाजत है, किसी चीज को छूने की और लेने की इजाजत नहीं है। यदि वह छुवेगा, लेगा तो वह बंधन में पड़ेगा, गिरफ्तार होगा। यों ही यहाँ का सारा यह समागम केवल जानने के लिए है। स्नेह करेगा तो वह बंधन में पड़ेगा और खुद दुःखी रहा करेगा। यों अपने हित का सब कुछ निर्णय करके, अब बहिरात्मापन को त्याग कर, अंतरात्मा में व्यवस्थित होकर उस परमात्मा की भावना करो जो परमात्मतत्त्व सर्वसंकल्पों से अतीत है। उस निर्विकल्प कारणसमयसार और कार्यसमयसार की भावना बनावो।परमात्मप्रदीप योग―ग्रंथ के प्रारंभ में पूर्व श्लोक में यह कहा था कि आत्मा तीन प्रकार के हैं―बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा। इसमें मध्य की बात तो उपाय है और पूर्व की बात हेय है, और उत्तर की बात याने परमात्मा की बात उपादेय है। उस ही के समर्थन में प्रायोजनिक संक्षिप्त बहिरात्मत्व व अंतरात्मत्व का वर्णन करके यहाँ बताया जा रहा है कि अंतरात्मा बनकर बहिर्मुखत्व को छोड़ दो और अखंड निराकुल परमात्मतत्त्व की भावना करो। इस परमात्मतत्त्व की ही भावना के प्रसाद से आत्मा का हित है और किसी भी उपाय से आत्मा का हित नहीं है। अब ममता को त्यागकर परतत्त्वों में अहम् बुद्धि को त्यागकर ज्ञानमात्र निजस्वरूप का ज्ञान द्वारा अनुभव करें जिससे यह परमात्मतत्त्व प्रकट हो और सदा के लिए सारे संकट दूर हो जायें।
*समाधितंत्र प्रवचन प्रथम भाग समाप्त*