वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 28
From जैनकोष
सोऽहमित्यात्तसंस्कारस्तस्मिन् भावनया पुन:।तत्रैव दृढ़संस्काराल्लभते ह्यात्मनि स्थितिम् ।।28।।प्रस्तावना―इस श्लोक से पहिले इस समस्त ग्रंथ की संक्षिप्त भूमिका में यह बता दिया गया था कि लोक में तीन प्रकार से आत्मत्व मिलेगा―बहिरात्मत्व, अंतरात्मत्व और परमात्मत्व। इनमें अंतरात्मा बनने के उपाय से बहिरात्मापन को छोड़ना और परमात्मत्व को ग्रहण करना, बस यही जीवों का परम पुरूषार्थ है। इसके वर्णन में बहिरात्मा अंतरात्मा और परमात्मा का स्वरूप बताया है। उसमें भी परमात्मा के स्वरूप को संक्षेप में ही कहकर बहिरात्मा के स्वरूप का विशेष वर्णन किया और उससे भी विशेष अंतरात्मा का वर्णन किया। प्रायोजनिक अंतरात्मा का वर्णन करके अंत में यह शिक्षा दी गयी है कि इस प्रकार बहिरात्मापन को छोड़कर और अंतरात्मत्व में स्थित होकर परमात्मत्व की भावना करनी चाहिए। अब उस ही परमात्मत्व की भावना के संबंध में यह प्रकरण चला है।कार्यब्रह्म और कारणब्रह्म―परमात्मत्व दो प्रकार से है―एक कारणपरमात्मत्व और एक कार्यपरमात्मत्व। ऐसा यह दो प्रकारपना केवल परमात्मत्व में ही नहीं है, किंतु प्रत्येक प्रसंग में कारणत्व और कार्यत्व का प्रयोग है। जैसे कारणपरमाणु और कार्यपरमाणु। इस ही प्रकार कारण समयसार और कार्य समयसार। जो सहज चैतन्यस्वभाव है वह तो है कारणब्रह्म और जो चित्स्वभाव मात्र का उत्कृष्ट शुद्ध विकास है वह है कार्यब्रह्म। परमार्थदृष्टि से यह आत्मा निजस्वरूप होने के कारण, कारणब्रह्म की उपासना कर सकता है। कार्यब्रह्म की उपासना तो उसे विषयभूत बनाकर अथवा आदर्श मानकर किया करके हैं। सो वहां भी इस आत्मा ने गुणस्मरणरूप निज परिणमन का विकास किया है। तो जहां परमात्मत्व की भावना करने का संदेश आया हो वहां पर अध्यात्मशास्त्रों में यह अर्थ लेना चाहिए कि शुद्ध कारणब्रह्म की उपासना करें।परमात्मत्व की उपासना और आत्मस्थिति―इस परमात्मत्व की उपासना कैसे होती है ? उसका फलितरूप यह है कि आत्मा आत्मा के ही स्थिति को प्राप्त करले तो समझ लीजिए कि मैंने कारणब्रह्म की उपासना की। उसका व्यवहारिक प्रयोग क्या है, यह इस श्लोक में पूर्वपंक्ति में बताया जा रहा है। ‘वह मैं हूं’ इस प्रकार का पाया है संस्कार जिसने, ऐसा यह मुमुक्षु आत्मा में ही कारणपरमात्मतत्त्व की बारबार भावना करता है। उस भावना के बल से उस ही कारणपरमात्मत्वस्वरूप में सच्चिदानंदस्वभाव में दृढ़ संस्कार वाला होता है। इस दृढ़ संस्कार से वह आत्मा आत्मा में ही स्थिति को प्राप्त होता है। इस सहज चैतन्यस्वरूप की उपासना में जो आनंद भरा है, जो तत्त्व है वह अन्यत्र किसी भी स्थिति में नहीं है।बरबादी―भैया ! यह वैषयिक सुख तो इसके पीछे यों लग गया है जैसे लोग कहा करते हैं कि किसी को सताने के लिए प्रेत पीछे लग जाता है। उससे भी कठिन ढंग से ये विषय-कषाय इसकी बरबादी के लिए तुले हुए लगे हैं। ऐसी मोहिनी धूल पड़ी है इन जीवों पर जिससे कि उन विषयों से बरबाद होते चले जा रहे हैं। फिर भी उन विषयों में प्रीति बनाये जा रहे हैं। और केवल इतना ही नहीं, विषयों के वश होकर दीन भी बने फिर रहे हैं। किंतु पंचेंद्रिय और मन के विषय में अपना बड़प्पन मानकर अभिमान से चूर हो रहे हैं। यह जीव सबको तुच्छ समझता है और अपने आपको बहुत उच्च समझता है, पर यह विदित नहीं है कि अभिमानी पुरूष वह तो अकेला ही सबको तुच्छ देखता है, पर नीचे रहने वाले पुरूष अर्थात् नम्र सभ्यगण उस अभिमानी को सभी के सभी तुच्छ देखते हैं। अहंकार में डूबे हुए पुरूष को कभी विवेकपूर्ण ध्यान नहीं रहता है। यह अहंकार भी अज्ञान का ही प्रताप है। अपने आपके स्वरूप का कोई भान नहीं है। यह पर्याय का अहंकारी, विषयों का मोही यह नहीं जान पाता है कि मेरा स्वरूप तो वही है जैसा कि सबका है। सब में एकरस, एकस्वरूप यह आत्मतत्त्व है। इसकी पहिचान न होने से ही यह अपने को सबसे निराला और बड़ा मानता है। ओह, जो बहिर्मुख रहता है उसकी कहां भावना हो सकती है कि वह परमात्मस्वरूप को समझे, उसकी भावना करे और अपना जीवन सफल करें।अहम्–मैं वह हूँ। कौन ? सीधा समझने के लिए तो व्यवहार का आश्रय करके शुद्ध विकास की ओर दृष्टि दें―मैं वह हूँ जो अनंतज्ञानादिमय परमात्मस्वरूप है, सो ही मैं हूँ और परमार्थदृष्टि से जो सहज ज्ञानरूप है, सहज दर्शनरूप सहज आनंदमय, सहजशक्तिस्वरूप जो चित् रूप है, ज्ञायकस्वभाव है वह मैं हूँ, ऐसी भावना निकटभव्य पुरूष के होती है। मैं वह हूँ ऐसी भावना के साथ यह भी बात छिपी हुई है कि मैं और कुछ नहीं हूँ, मैं प्रभुस्वरूप हूँ ऐसा कोई चिंतन करे तो उसमें यह बात पड़ी हुई है कि मैं रूलने वाला, मिटने वाला संसारी प्राणी नहीं हूँ। और जब निज कारणब्रह्म को लक्ष्य करके कहा जाय कि मैं वह हूँ तो उसमें यह बात पड़ी हुई है कि मैं गति, इंद्रिय, देह योग, वेद सर्व प्रकार के भेदभावों रूप नहीं हूँ।भावना का प्रभाव―भैया ! शुद्धात्मतत्त्व क भावना का बहुत महत्त्व है। किसी भी ओर की भावना हो तो वह भावना अपना प्रभाव दिखाती है किसी को बड़ी आर्थिक हानि हो गयी हो और उस ओर ही भावना बन रही हो तो उस भावना का इतना असर हो जाता है कि उसे दिल की बीमारी हो जाती है और जब बीमारी बढ़ जाती है तो सारे हितैषी लोग गोद में भी लिए फिरें, तिस पर भी वह लाइलाज हो जाता है। कोई पुरूष नाटक के मंच पर स्त्री का पार्ट करे और मैं स्त्री हूँ ऐसी दृढ़ भावना करले तो उसे अपने पुरूषार्थ का भी स्मरण नहीं रहता। किसी नाटक में तो यह भी सुना गया है कि किसी ने अमरसिंह का पार्ट किया तो मैं अमरसिंह हूँ ऐसी दृढ़ भावना भरी। इसके कारण अमरसिंह ने जैसे मारा था, उस ही प्रकार यह भी उस नाटक के मंच पर पार्ट में बने हुए सुलतानसिंह को शस्त्र से मार दिया था। और है क्या ? एक भावना ही तो घर कर गयी है जिसने नानारूप रखने पड़ते हैं।
भावनानुसार वृत्ति―कोई पुरूष इस ध्यान में गड़गप्प हो जाय कि मैं तो एक लंबा चौड़ा भैंसा हूँ। खूब ध्यान करे तीव्र गति से तब चित्त पूर्ण प्रकार से यों हो जाता है कि मैं भैंसा हूँ, बहुत बड़ा हूँ। इस भावना के साथ परिमाण भी उपयोग में लावे, कि तीन चार हाथ लंबे अगल बगल फैले हुए मेरे सींग भी है, ऐसा मैं बहुत बड़ा लंबा, चौड़ा, मोटा एक भैंसा हूँ, तथा ऐसा ही सोचने के बीच थोड़ा यह भी ध्यान बन जाय कि इस दरवाजे में तो केवल दो ही फिटकी चौड़ाई है मैं नहीं निकल पा रहा हूँ तो इस तरह का ख्याल बन जाने से वह खेद करेगा, हाय मैं अब कैसे निकलूंगा ? अरे ! तू तो आदमी है, खेद क्यों करता है ? खेद कैसे न करे, उपयोग में तो अपने को लंबा चौड़ा मान लिया। सब उपयोग की ही तो बात है। कौन किसकी स्त्री है, कौन किसका पिता है, पर उपयोग में भर लिया कि मैं इनकी स्त्री हूँ, मैं इनका पिता हूँ, तो सारे जीवन भर वही वासना, वही संस्कार, वही चेष्टा बनी रहती है। भावना का बहुत प्रभाव है।स्व–सद्भावना–ऐसे ही यदि कोई सतपुरूष अपने आप में यह भावना करे कि मैं तो शुद्ध ज्ञानब्रह्म हूँ, ज्ञानमात्र, ऐसी भावना को दृढ़ता से भाये, जहां यह भान ही न हो कि मैं मनुष्य हूँ, मेरे देह भी लगा है, मैं अमुक गांव का हूँ, अमुक जाति कुल का हूँ ऐसा कुछ भी भान न रहे, केवल मैं ज्ञानस्वरूप हूँ ऐसी ही उपयोग भर जाय तो उस काल में इस जीव के अपने आपके ज्ञान में ज्ञानरूप स्थिति हो जाती है। यही तो परमात्मतत्त्व प्रदीपक योग है। इसी को कहते हैं सोहं की भावना।सोऽहं की भावना का उपक्रम―भैया ! ऐसा रंग जाय सोहं के भाव में कि सोहं सोहं की ही ध्वनि सुनार्इ दे। श्वास भी तो इसी तरह लिया जाता है। जब श्वास अंदर को आता है तब आवाज निकलती है सो की और जब श्वास बाहर को फेंका जाता है तो आवाज निकलती है हं की। चाहे नाक से श्वास लेकर और श्वास को बाहर निकालकर अभी देख लो। अब अपने को श्वास के साथ ही उस सोहं में रंग लो। जब श्वास को नाक से अंदर ले जाया जा रहा हो उस समय सो का ध्यान करो, और जब श्वास को नाक से बाहर निकाला जा रहा हो तब हं का ध्यान करो। अब सोहं का ध्यान स्वर में मिला दो। इस संबंध में किस प्रकार उन्नति की जा रही है इसको कुछ प्रारंभ से देखिये। पहिले यह जीव दासोहं दासोहं की भावना में रहा। हे प्रभो ! मैं तुम्हारा दास हूँ, सेवक हूँ। कोई बड़ा ईमानदार सेवक हो तो बहुत दिन सेवा करने के बाद मालिक का अति लाड़ला व निकटवर्ती हो जाता है। होना चाहिए ईमानदारी की सेवा। यों ही निश्छल भाव से प्रभु की उपासना हो, संसार का कुछ प्रयोजन न हो तो प्रभु की निकटता होती है।बाह्य में असारता―क्या रक्खा है बाल बच्चों में, क्या रक्खा है मकान में ? यह सब तो एक झंझट का समुदाय है। आज की ही एक घटना सुनने में आयी है कि एक लड़का घर से निकला, 15, 16 क्लास पास था, वह रेल से कट कर मर गया। किसी का लड़का गुस्सा होकर भाग जाये और आये रात कि तीन बजे तो घर वालों को सारे नगर में ढूँढना पड़ता है। जरा खेद के साथ कहो, वाह रे कुटुंब के मजे किसको चाहते हो, किसकी चाह में प्रभुभक्ति की इतिश्री कर रहे हो। ये धन वैभव तो जड़ हैं। एक पत्थर से ही सिर लग जाय तो खून निकले, ऐसे ही पत्थर बतौर सारे वैभव हैं। रहा गुजारे का काम, उदरपूर्ति का काम, सो इसके लिए इतने धन वैभव की वहां आवश्यकता नहीं है। चींटी, कीड़ी भी उदयानुसार उदरपूर्ति कर लेते हैं। अपने अपने भावों के अनुसार सबको उदरपूर्ति का साधन रहता है। इतने विशाल वैभव के संचय की बुद्धि होना और इसके ही लिए प्रभु के आगे मंजीरा ढोकना, वाह रे भगत, किस असार तत्त्व के लिए प्रभुभक्ति की इतिश्री की जा रही है ?
पवित्र भावना का परिणाम―निश्चल भाव से, सांसारिक किसी प्रयोजन बिना प्रभु की उपासना हो और प्रभु की भी उपासना स्वरूपरूप में हो, चारित्र के रूप में नहीं। आदिनाथ स्वामी ने अपने जीवन में यों यों किया, महावीर तीर्थंकर ने यों यों किया, श्री राम भगवान् ने यों यों राज्य किया, व्यवहार किया, इत्यादि रूप से उनके चरित्र पर दृष्टि न दें, किंतु उन आत्मावों का जो सहजस्वरूप है, कारणस्वभाव है उस स्वभाव को निरखें। यदि इस परमार्थतत्त्व को निरखते जावोगे तो वहां न आदिनाथ, न महावीर, न राम कोई व्यक्ति भेद में उपस्थित न होंगे, किंतु वहां एक शुद्ध कारणब्रह्म चित् स्वरूप ही उपयोग में रहेगा। ऐसे स्वरूप की कोई करे तो निश्छल उपासना, वह फिर दासोहं के भेद से रहित होकर सोहं का अनुभव करने लगेगा। श्वास श्वास में सोऽहं का मेल―अब सोहं के ज्ञान द्वारा अनुभव किया, किंतु थक गए। बहुत सा काम करके तो आप लोग भी थक जाते हैं ना। तो यह एक अपूर्व नया काम है, प्रथम अभ्यास है, लो थक गए। बहुत प्रगति के साथ सोहं की भावना चली थी, इसमें थक गए तो अब कुछ व्यावहारिक प्रयोग करिये। पर यह आनंद का काम था, सो इसे न छोड़िये। अब उतर आइए अपने श्वासों पर। दृष्टि में आने लगा उसे यह देह मायारूप है। अब इस माया से भी इस ढंग से बात करिये, इस ढंग से व्यवहार रखिये कि जल्दी छुट्टी मिलकर फिर उस परमार्थ उपवन में विहार शुरू हो जाय। श्वास लेने के साथ सो और उच्छवास के साथ हं की भावना लेते जाइए। अब फिर उस ही प्रगति में आ जाइए। अब श्वास में दृष्टि जाय और सोहं आ जाय दृष्टि में। अब अनुभव कीजिए यह मैं हूँ। कारणब्रह्म में सोऽहं की उपासना―देखिये―यहां पर कार्यपरमात्मा को अब ‘सो’ मत मानिए, क्योंकि अंतर की बात हो गयी इस दृष्टि में। कार्यपरमात्मा परक्षेत्र में स्थित है, परचतुष्टय है, उसमें आत्मस्थिति न बन पायेगी। उस सो को अब कारणब्रह्म के रूप में बदल लीजिए जो घट घट में अंत:प्रकाशमान् है। अब अपने आपमें इन सब पर्दों को फाड़कर चमड़ा, मांस, हड्डी, रागद्वेष, खंडज्ञान, विकल्प, विचार इन सब पर्दों को पारकर, इनमें न अटककर अंतर में अंतस्तत्त्व को पहिचानिये उस शुद्ध सनातन चिद्ब्रह्म को अनुभूत कीजिए। अपने आप में ही अंतर में प्रवेश करने में क्या हैरानी होती है ? उस चिद्ब्रह्म को लक्ष्य में लेकर कुछ भावना तो करिये सोहं की। मैं चित्स्वरूप हूँ, रागादिकरूप नहीं हूँ, यों देखिये, अन्य जगह दिमाग को मत ले जाइये।चिंता क्यों?―भैया ! जब मैं रागादिकरूप भी नहीं हूँ तो अन्य सपने की बातों का तो कहना ही क्या है ? परद्रव्यों की बात कुछ भी ध्यान में मत रखिये। कुछ चिंता नहीं, वैभव से आप नहीं लगे हैं, किंतु आपके भाग्य से वैभव लगा हुआ है। वैभव में आप में आप नहीं पड़े हैं, किंतु आपके भाग्य में वैभव पड़ा हुआ है। वैभव के साथ भाग्य न जायेगा, किंतु भाग्य के साथ वैभव जायेगा। वह भाग्य आपका यहीं पर है। वैभव चाहे कहीं पड़ा हो, पर वैभव की जो मूल डोरी है वह तो आपके इस देह में ही मौजूद है, फिर चिंता किस बात की ?
आत्मस्थिति के अर्थ-कुछ क्षण को बाह्यअर्थों में उपयोग को न भटकाएं और अंतर में निहारें कि मैं शुद्ध चित्स्वरूप हूँ। इस शुद्धतत्त्व की बार बार भावना के द्वारा उस ही में दृढ़ संस्कार बनाएं। जाननहार को यह बात सुगम होती है। यदि यह तत्त्व आज दुर्लभ है, इसकी थाह पाना भी कठिन हो रहा है तो परेशानी या निराशा महसूस न करके इस ओर उत्साह बढ़ाये कि हम इस स्वरूप के ज्ञान का अभ्यास करने लगें, फिर तो यह अति सुगम हो जायेगा। इस आत्मतत्त्व की भावना के द्वारा जो आत्मसंस्कार प्राप्त हुआ है, उस संस्कार से फिर यह जीव आत्मा में आत्मा की स्थिति को प्राप्त कर लेता है। अपना शरणभूत अपने से गुम गया था, निकट ही पर दृष्टि फेर ली थी, सो वह दूर ही रहा। जैसे आपके पीछे जो बैठा हो वह तो आपके लिए कोसों दूर है। जब मिल गया उसे अपना नाथ तो उसके दर्शन पाकर बस यह कृतकृत्य और प्रसन्न हो जाता है।