वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 4
From जैनकोष
बहिरंत: परश्चेति त्रिधात्मा सर्वदेहिषु।उपेयात्तत्र परमं मध्योपायाद्बहिस्त्यजेत्।।4।।
हेय, उपाय और उपेय―थोड़े शब्दों में सार बात कहे देते हैं, सर्वप्राणियों में बहिरात्मापन, अंतरात्मापन और परमात्मापन है, उनमें अंतरात्मापन का उपाय बनाकर बहिरात्मापन को छोड़ो और परमात्मापन का ग्रहण करो। अब अंतरात्मापन होने का उपाय क्या है ? इस उपाय के बताने में यह समाधितंत्र ग्रंथ आचार्यदेव ने बताया है। सर्वदेहियों में बहिरात्मा और परमात्मा ऐसे तीन प्रकार के आत्मा है। इनका लक्षण आगे आयेगा। फिर भी विषय समझाने के लिए थोड़ी इनकी परिभाषा जान लीजिए।
बहिरात्मत्व का स्वरूप―बहिरात्मा–बाहर में आत्मा समझना सो बहिरात्मापन है। अपने से बाहर में आत्मत्व जो जानता है वह बहिरात्मा है। अब अपन वह कितने हैं, क्या हैं ? जिसको छोड़कर अन्य सब बातें बाहर हैं। इस समस्या पर विचार करिये वास्तव में वह अपना आत्मा एक ज्ञानस्वभावमात्र है। शरीरादिक परद्रव्य तो आत्मा हैं ही नहीं, और कर्मउपाधि के संबंध से जो विभाव उत्पन्न होते हैं, रागद्वेष, वे भी अपने नहीं हैं। यह स्वयं तो वह है जो सदा रहता है वह है चित्तरूप। उस चिदानंदमय अपने आत्मा को छोड़कर बाहर में किसी भी चीज को आत्मा मानना सो बहिरात्मापन है। जितना भी जीवों को क्लेश है उनका बहिरात्मबुद्धि है। स्वयं जितना यह अपने आप है उतना ही इसकी दृष्टि में रहे तो इस ज्ञानस्वभावी आत्मा को क्लेश का फिर कारण न मिलेगा। ऐसे इन ज्ञानस्वभावी आत्मा को छोड़कर बाहर में अर्थात् स्वरूप से बाहर में अपना आत्मा समझना सो बहिरात्मापन है।
अंतरात्मा व परमात्मा का स्वरूप―अंतरात्मा किसे कहते हैं ? अपना अंतरंग जो स्वरूप है उस स्वरूप को ही जो आत्मा मानता है उसे अंतरात्मा कहते हैं। यद्यपि अनेक अंतरात्मा बाहरी कार्यों में भी प्रवृत्त रहते हैं और उनको रागद्वेष की बातें भी सताती हैं फिर भी वे अपने अंतरंग में अपने ज्ञानस्वभावमात्र आत्मा को आत्मा जानते हैं। इसी कारण उनका संसार लंबा नहीं होता है। वे कर्मों की निर्जरा कर रहे हैं। परमात्मा कहते हैं उसे जो आत्मा परम हो गए हैं अर्थात् उत्कृष्ट ज्ञान लक्ष्मी में संयुक्त हो गए हैं ऐसे आत्मा को परमात्मा कहते हैं।
सर्वजीवों में आत्मत्रितयता―इन तीनों तत्त्वों के संबंध में छहढाला में बड़े संक्षेप में स्वरूप कहा है कि जो देह और जीव को एक मानता है उसे बहिरात्मा कहते हैं, और जो अंतर के आत्मा को आत्मा मानता है उस अंतरात्मा कहते हैं और उत्कृष्ट ज्ञान से जो सहित है उसे परमात्मा कहते हैं। ये तीनों स्थितियां प्रत्येक जीव में पायी जाती हैं, किसी में कुछ भूतरूप से, किसी में कुछ वर्तमानरूप से, किसी में कुछ भावीरूप से। जो अज्ञानीजन हैं, मिथ्यादृष्टि जड़ देह को ही आत्मा मानने वाले हैं वे वर्तमान में बहिरात्मा हैं और उनमें अंतरात्मा होने की शक्ति है और परमात्मा होने की भी शक्ति है, ऐसी यह त्रितयता बहिरात्मा में भी है। जो इस समय ज्ञानी है, अंतरात्मा है वह भूतकाल की अपेक्षा तो बहिरात्मा हैं और भावीकाल की अपेक्षा परमात्मा है, वर्तमान में अंतरात्मा है। जो परमात्मा हो गए हैं वे भूतकाल की अपेक्षा बहिरात्मा और निकट भूतकाल की अपेक्षा अंतरात्मा है तथा वर्तमान में परमात्मा है ही। अंतरात्मत्व की उपायभूतता―आचार्यदेव कहते हैं कि इन 3 में से मध्य की बात को उपाय बनाया अर्थात् अंतरात्मा बने और अंतरात्मा के उपाय से बहिरात्मापन को छोड़े और परमात्मापन को ग्रहण करें। इस जीव का इस जीव से बाहर कुछ भी संबंध नहीं है। देह तक भी तो इस जीव के साथ नहीं है। कौन चाहता है कि हमारी मृत्यु हो ? पर होती अवश्य है। मरते हुए अनेक लोगों को देखा है और खुद को भी बड़ी शंका बनी रहती है और ज्योतिषियों से पूछते भी रहते हैं कि हमारी उमर कितनी है ? तो मृत्यु का भय इस जीव को लगा हुआ है। जब देह भी अपनी नहीं है तो अन्य बाहरी चीज अपनी क्या होंगी ? देह और जीव को एक मानने वाला बहिरात्मा है, अन्य चीजों को भी वह अपनी मानता है, पर देह के संबंध से अपनी देह में प्रीति है तो इस देह के आराम के साधक बाह्य पदार्थों में भी प्रीति है। जिन्हें यह सम्यग्ज्ञान हो गया है और समस्त वस्तु स्वतंत्र-स्वतंत्र दृष्टि में आने लगी हैं, ऐसे पुरूषों को अंतरात्मा कहते हैं। ज्ञान के अतिरिक्त अन्यतत्त्व में सर्वप्रियता का अभाव―भैया ! सबसे प्रिय चीज है तो ज्ञान है। ज्ञान से और अधिक प्रिय चीज कुछ भी नहीं है। उसका उदाहरण―जैसे जब बच्चा साल डेढ़ साल का होता है तो बतावो उसे सबसे प्यारी चीज क्या है ? सबसे प्यारी चीज है मां की गोद। इससे बढ़कर उसे और कुछ प्यारा नहीं लगता। जब वह चार-पाँच साल का हो जाता है तो प्यारे लगने लगे खेल खिलौने। मां की गोद भी अब उसे प्रिय नहीं लगती। मां पकड़ कर रखेगी तो छूटकर वह भागना चाहता है। उसे तो खेल खिलौने प्रिय हो गए। जब 10, 15 वर्ष का हो जाता है तो उसे विद्या प्रिय हो जाती है, परीक्षा आ रही है, विषय याद कर रहा है, रात दिन परिश्रम किया जा रहा है। तो उसको अब विद्या प्रिय हो जाती है। अब विद्या तक ही निगाह नहीं है, विद्या उसके लिए गौण है, अब तो कोई डिग्री मिलनी चाहिए। डिग्री मिल चुकी। अब उसके लिए प्रिय होती है स्त्री। विवाह की अभिलाषा होती है। दो चार वर्ष स्त्री प्रीति की, उसके बाद उसे बच्चे प्रिय हो जाते हैं। बच्चे भी हो गए तो अब उनकी रक्षा करनी है, तो अब उसे धन प्रिय हो जाता है। अब उसे न स्त्री प्रिय रही, न बच्चे प्रिय रहे। कल्पित प्रियतमों की प्रियता का लोप―अब फिर पासा पल्टा। मान लो यह घर का मालिक किसी दफ्तर में कार्य कर रहा है और फोन आ जाय कि अचानक घर में आग लग गयी तो वह दफ्तर छोड़कर भागेगा और घर पहुंचकर वहाँ धन निकालने की कोशिश करेगा। स्त्री, बच्चे सब को बाहर करने की कोशिश करेगा और रह जाय कोई एक छोटा बच्चा घर के भीतर और आग तेज बढ़ जाय तो वह दूसरों से कहेगा-अरे भाई मेरा बच्चा तो रह ही गया है उसे निकाल दो, हम 5 हजार रूपये ईनाम देंगे। अरे भाई तू खुद ही क्यों नहीं चला जाता। नहीं जाता क्योंकि उसे बच्चे से भी धन से भी प्रिय है अपनी जान, अपने प्राण। तो अब क्या प्यारा हो गया सबसे अधिक ? अपनी जान। ज्ञान की सर्वप्रियता―कभी ज्ञान और वैराग्य उसके समा जाय और साधु हो जाय। वन में ध्यान कर रहा है, समाधि का अभ्यास कर रहा है और वहाँ कोई हिंसक जानवर आ जाय तो वह योगी क्या करता है ? अपने ज्ञान ध्यान की रक्षा करता है, समता परिणाम की रक्षा करता है। हालांकि उसमें इतनी ताकत भी है कि उन जानवरों को भी हटा सकता है, शत्रु को भी भगा सकता है पर उनका भी उसे विकल्प नहीं है। वह जानता है कि यह विकल्प किया जायगा तो अपने उस समाधि, समता परिणाम का विनाश हो जायगा। सो वह ज्ञान की रक्षा कर रहा है, तो अब उसे ज्ञान प्रिय हो गया। अब ज्ञान से बढ़कर और प्रिय क्या होगा ? इससे आगे और गति नहीं है। तो यह ज्ञान जिन्हें प्रिय हो जाता है, इसको निर्मल स्वच्छ बनाए रहने की जिसके अंतर में वृत्ति होती है वह पुरूष अंतरात्मा कहलाता है। अंतरात्मत्व का प्रादुर्भाव―इस अंतरात्मा बनने के उपाय से उनकी दो बातें होती हैं, बहिरात्मापन छूट जाता है और परमात्मापन प्रकट हो जाता है। अब जरा अंतर में यह देखिये कि इस जीव की खुद की स्थिति और बद्धकर्मों की परिस्थिति किस प्रकार से चलती रहती है ? जब यह जीव अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि है तो मिथ्यात्व प्रकृति का उसके उदय है और यहाँ विपरीत आशय है। जैसे किसी का किसी से बैर हुआ तो उस माने गए बैरी के चलने, उठने, बैठने, बोलने सभी का अर्थ अपने विरोध में लगाता हैं। यों ही यह मिथ्यादृष्टि जिस चीज को पाता है, जो संघ मिलता है, उस में ही अपना विपरीत आशय बनाता है। जब इस अज्ञानी जीव को भी कुछ कर्मों की मंदता होने पर धर्म की प्रीति जगती है, ज्ञान का अभ्यास करने लगता है तो उसे कुछ असारता मोटे रूप से नजर आने ही लगती है। तो उस असारता की बुद्धि में वह प्रगति करता है और ज्ञान की ओर विशेष लगता है। यद्यपि अभी तक उसके सम्यक्त्व नहीं जगा, पर मिथ्यात्व के मंद उदय में भी धर्म की ओर कुछ रूचि चलने लगती है―(ज्ञान की ओर) तो जब वस्तुपरिज्ञान किया और वस्तुवों की भिन्नता समझ में आने लगी तो किसी समय सर्व परवस्तुओं की उपेक्षा करके अपने आपके स्वरूप में विश्राम करता है। उस विश्राम की हालत में यह दृष्टि स्वभाव में जब फिट बैठ जाती है, अनुभव जगता है, तब अनुभव जगने के ही साथ सम्यक्त्व उत्पन्न होता है और अतिंद्रिय आनंद प्रकट होता है। इस क्षण के बाद फिर उसे धर्म की, ज्ञान की सब बातें सुगम हो जाती हैं। एकत्वरूचि―यह ज्ञानी जीव अंतर में रूचि की अपेक्षा तो ज्ञानरत है, पर से विरक्त है, ज्ञाता है, पर प्रवृत्ति में अभी इस मार्ग में आगे नहीं बढ़ा है। अब वह क्रम से बढ़ता है और अपने ज्ञानस्वरूप में स्थिरता को बढ़ाता है। इस ज्ञानस्वरूप की स्थिरता के बल से ये सब कर्म छूटने लगते हैं। यहाँ इस ज्ञान का जब दबाव दूर हुआ, आवरण दूर होने लगता है तो किसी समय एकदम शुद्धज्ञान प्रकट होता है। जब यह आत्मा खालिस रह जाय, केवल रह जाय, इसके साथ कुछ भी न हो। स्वयं सत् है ना, तो जैसा यह स्वयं सत् है वैसा ही मात्र रह जाय तो यह इसकी शुद्धता है और इसमें ही इसके गुणों का पूर्ण विकास होता है। कल्याणार्थी को चाहिए कि जितना भी बन सके ऐसा यत्न करना चाहिए कि अपने को अकेला देखे। एकत्वदर्शनरूप औषधि―भैया ! सुख शांति का उपाय वही एक है कि जितना अपने आपको केवल देख सके। बड़े योगी संत अपने आपको इतना केवल देखते हैं कि उनके केवल ज्ञानमात्र यह आत्मानुभूति होती है। व्यवहार में भी जब कभी आपत्ति आ जाती है, भ्रष्ट उपयोग हो जाता है तो बड़ा दिल परेशान रहता है, जिससे वर्षों प्रीति रखी और जिसकी ओर से भी बड़े प्रेम के शब्द सुनने को मिले और इसी कारण बहुत उससे अनुराग हो गया है। अब संसार के नियम के अनुसार वह गुजर गया तो उस गुजरे हुए इष्ट पुरूष के प्रति जो क्लेश होता है चिंतन करके संयोग की भावना में, उस क्लेश को मिटाने में समर्थ अपने आपको अकेला समझ सकना है। और कोई उपाय नहीं है। इष्ट वियोग से उत्पन्न हुए दुःख को क्या सोडा लैमन की बोतलें मिटा देंगी, क्या नींबू संतरा के शरबत मिटा देंगे या रिश्तेदार लोग बहुत प्रेम करके समझाएं, घर के लोग बढ़िया बढ़िया भोजन सामने रखकर खिलाएं ये सब बातें उसके दुःख को नहीं मिटा सकतीं। उसके दुःख को तो वही मिटा सकता है। जब यह जान जाय कि मैं तो सर्व से विविक्त केवलस्वरूप मात्र हूँ, तो अपने आपको केवल समझ लेना, यही क्लेशों के दूर करने का उपाय है। अन्य समस्त से सर्वथा विविक्तता- इस अंतरात्मा ने भी अपने आपको यही समझा है जिससे इसका क्लेश एकदम समाप्त हो गया है। देह से भी भिन्न ज्ञानस्वरूपमात्र आकाशवत् निर्लेप यह मैं चैतन्य पदार्थ हूँ। यह सब अनात्मावों से एक समान जुदा है। ऐसा नहीं है कि घर के आदमियों से कम जुदा हो और बाहर के दूसरे घर के लोगों से जीवों से अधिक जुदा हो, ऐसा भेद नहीं है। यह अपने स्वरूप मात्र है। और जैसे यह अत्यंत जुदा दूसरे बाहर के लोगों से है, उतना ही पूर्ण अत्यंत जुदा गृह में बसने वाले परिवार के लोगों से भी है। ऐसा सबसे विविक्त ज्ञानस्वरूपमात्र अपने आपका विश्वास रखने वाले जीव अंतरात्मा कहलाते हैं।
गुणपूजा―भैया ! ये सब अपने आत्मा की अवस्थाएं हैं। जब हम भगवान् की याद करें, भक्ति करें, नाम लें तब हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि मेरा ही तो स्वरूप है। जैनसिद्धांत में आत्मसाधना के पथ में 5 परमपद बताए गए हैं। किसी व्यक्ति का महत्व नहीं है इस सिद्धांत में भगवान् महावीर भी पूजे जाते हैं तो भी एक महावीर स्वामी थे इसलिए पूजे जाते हों यह बात नहीं है और जितने भी तीर्थंकर आदिनाथ, पार्श्वनाथ अथवा अन्य सामान्य केवली हनुमान रामचंद्रादिक जो भी पूजे जाते हैं वे चूंकि राम थे। वे चूंकि हनुमान थे, आदिनाथ थे इस नाते से नहीं पूजे जाते हैं। वे वीतराग सर्वज्ञ आत्मा हैं, इस कारण पूजे जाते हैं और इसीलिए जो मूल मंत्र है उसमें किसी व्यक्ति को नमस्कार नहीं किया गया है। फिर किन्हें नमस्कार किया गया है ? तो आत्मसाधना के वश में जिनका विकास हो जाता है उन विकासों को नमस्कार किया गया है। परमेष्ठिता के विकास―परमेष्ठियों में से प्रथम विकास है साधुता। इसमें आचार्य उपाध्याय और साधु तीनों शामिल हैं। ये तीनों एक बराबर है। साधु भी रत्नत्रय की सेवा करता है, उपाध्याय भी रत्नत्रय धर्म की सेवा करता है और आचार्य भी इस ही रत्नत्रयरूप धर्म की सेवा करता है। इन तीनों प्रकार के साधुवों में जिस किसी को भी उत्कृष्ट साधना हो जाय, निर्विकल्प समाधि बन जाय तो वही साधु कर्मों का क्षय करके अरहंत हो जाता है। अरहंत कहते हैं शरीर सहित भगवान् को। क्योंकि पुरूष ही आत्मसाधना कर निर्वाण पाता है। तो पहिले बड़ी विशुद्धि आने पर भी कुछ समय तक शरीर का संग रहता है। सो जितने समय वीतराग सर्वज्ञ हो जाने पर भी शरीर के साथ हैं उतने समय तक वे अरहंत कहलाते हैं। जब अरहंत नाम का स्मरण हो तब यह भी ध्यान से न भूलना चाहिए कि वह मेरी ही तो अवस्था है, एक जाति है, ऐसा मैं भी हो सकता हूँ।
प्रभुपूजा का प्रयोजन―यदि अपने में प्रभुत्वशक्ति का निर्णय नहीं है तो अरहंत को मानने की जरूरत क्या है ? क्योंकि कोई भी भगवंत हो, किसी दूसरे जीव को सुख दुःख दें, धनी निर्धन बनाएं, स्वर्ग नरक भेजें इस खटपट में वे भगवान् नहीं पड़ते हैं। भगवान् तो समस्त विश्व के ज्ञाता होकर भी आनंदरस में लीन रहते हैं। सो उनसे कुछ अपना स्वार्थ तो बनता नहीं, फिर भगवान् को क्यों पूजा जाय ? भगवान् के पूजने का यही प्रयोजन और उद्देश्य बनाना चाहिए जिससे ऐसी उत्कृष्टता जगे कि मैं भी सर्वकर्मों का क्षय करके ऐसा हो सकूं और यह मेरी ही परिणति है। कोई अचेतन की परिणति नहीं है, चेतन की परिणति है। फिर अरहंत अवस्था के बाद स्वयमेव शेष बचे हुए कर्ममल का क्षय हो जाता है और उसके साथ ही एकदम शरीर कपूर की तरह उड़ जाता है। यहाँ फिर कोई शरीर के अंग नहीं रहते हैं। और यह आत्मा देह से छूटकर सदा के लिए मुक्त हो जाता है। ऐसे मात्र आत्मा को सिद्ध भगवान कहते हैं। जब सिद्ध का स्मरण करें तो अपने आप में यह प्रतीति बनाएं कि यह मैं स्वयं हूँ, मैं ऐसा हो सकता हूँ। यों इस श्लोक में यह शिक्षा दी है कि अंतरात्मा बनने के उपाय से यह आत्मा बहिरात्मापन से दूर हो और परमात्मापन को ग्रहण करे।