वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 6
From जैनकोष
निर्मल: केवल: शुद्धो विविक्त: प्रभुरव्यय:।परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिन:।।6।।त्रिविध आत्मावों के स्वरूप विवरण का क्रम―आत्मा के जो ये तीन प्रकार कहे गए हैं उनका सामान्य लक्षण कहकर विशेष वर्णन के प्रसंग सबसे पहिले परमात्मा का वर्णन क्यों किया जा रहा है ? इसका कारण यह है कि इस ग्रंथ में परमात्मा का वर्णन तो बस इस एक श्लोक में हो गया है, इस से अधिक वर्णन है बहिरात्मा का और उससे अधिक वर्णन है अंतरात्मा का। और इस प्रकार वर्णन करने का कारण यह है कि परमात्मा के स्वरूप को तो एक बार जानना है और उसे आदर्शरूप में पहिचानना है। काम तो यह पड़ा है कि बहिरात्मापन का त्याग करना है व अंतरात्मापन का ग्रहण करना है तो उसकी बात भी जाननी चाहिए कि क्या-क्या कलाएं इस बहिरात्मा अवस्था में होती हैं जिन कलावों को दूर करना है और कौन कौन कलायें हैं अंतरात्मावस्था में जिन कलावों से अंतरात्मा बनना है। विवरण में सबसे अधिक यों समझना है कि परमात्मा बनना है तो यहाँ सर्वप्रथम परमात्मा का विवरण किया जा रहा है। परमात्मा की निर्मलता―परमात्मा को अनेक विशेषणों से बताया है। वह निर्मल है, मलरहित है। जिसका मल दूर हो गया हो उसे निर्मल कहते हैं। यह चित् स्वरूप अमल है किंतु भगवान् निर्मल है। यद्यपि स्थूलरूप से अमल का भी यही अर्थ है और निर्मल का भी वही अर्थ है, पर अमल शब्द में यह ध्वनित है कि मल नहीं था, मल नहीं है, मल न होगा। ऐसी बात आत्मस्वभाव में पायी जाती है। प्रभु निर्मल है, इसके पूर्व संसार अवस्था में मल था और वह मल दूर किया गया है, निर्मल हो गया है। भगवान् के द्रव्य मल दोनों नहीं है। द्रव्यमल में आया शरीर और द्रव्यकर्म,और भावमल में आए रागद्वेष आदिक भाव और क्षायोपशमिक ज्ञान, कल्पना, विचार, तर्कणा ये सब भावमल हैं। परमात्मा द्रव्यमल और भावमल दोनों से रहित है।
सकल परमात्मा की निर्मलता―परमात्मा के लक्षण में अरहंत भी आते हैं व सिद्ध भी आते हैं। सिद्ध तो तीनों प्रकार के मलों से रहित है। और अरहंत आत्मा के गुण घातने वाले द्रव्यकर्म से रहित है तथा रागादिक तर्कणादिक सर्व भावमल से रहित है। अरहंत के द्रव्यकर्म मल शेष रहता है अथवा शरीररूप मल शेष रहता है, किंतु वह अशक्त मल आत्मा के गुणों में किसी भी प्रकार का विघात नहीं करता है।
प्रभु का कैवल्य―भगवान् प्रभु केवल हैं। केवल का अर्थ स्वरूपसत्ता मात्र है। परपदार्थों के संग और प्रभाव से रहित है। ‘क’ नाम आत्मा का भी है अथवा यदि केवल शब्द में वकार को ब बोल दिया जाय, केबल, अथवा वबयोरभेद;की दृष्टि की जाय तो उसका अर्थ होगा कि आत्मा में ही जिसका बल लगा हुआ है अर्थात् शुद्ध हुआ है, किसी परपदार्थ की दृष्टि नहीं कर रहा है, ऐसा सर्वविविक्त स्वरूपमात्र जो प्रकट हुआ है उसको केवल कहते हैं। केवल कहो, प्यौर कहो दोनों का एक भाव है। यद्यपि साधारण तौर से प्यौर का अर्थ कहते हैं पवित्र, पर सीधा अर्थ है सिर्फ रह जाना, केवल रह जाना। केवल रह जाने का ही नाम पवित्र होना कहलाता है। पवित्र होना कोई दूसरी चीज नहीं है। जो चीज सहज अपने स्वरूप जैसी है वैसी ही रह जाय उसी का नाम है केवल। प्रभु अरहंत और सिद्ध भगवान् केवल हैं, अपनी स्वरूप सत्ता मात्र हैं।
प्रभु की शुद्धता―प्रभु शुद्ध हैं। जैसे धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य अपने ही स्वरूपमात्र से रहते हैं, उसमें पर का संबंध नहीं है। इसी प्रकार यह प्रभु परमात्मा भी केवल अपने स्वरूप से रहता है। प्रभु में इच्छा का संबंध जोड़ना और जगत् के जीवों को सुखी दुःखी करने का संबंध जोड़ना, जीवों के कर्म के अनुसार फल देने की बात कहना, क्रिया को जोड़ना यह भगवान् के स्वरूप का अपमान है और प्रभु तो समस्त स्वतत्वों को जानकर केवल आत्मीय आनंदरस में लीन रहता है। यदि प्रभु जीव को सुख दुःख देने लगे तो जैसे हम आप लोग संसारी जीवों को सुख और दुःख देने का यत्न करते हैं इसी प्रकार उनका यत्न हुआ। कदाचित् कोई यह कहे कि यह तो ईश्वर है जो जीवों पर दया करता है। पाप का फल देता है, दुःख देता है, जिस जीव का पुण्योदय हुआ उसको सुख देता है क्योंकि उसका अच्छा परिणाम था। सो ऐसी स्थिति में जल्दी-जल्दी तो कुछ सुहावनासा लगता है किंतु इस प्रकार यदि वह ईश्वर वह प्रभु विपरिणमन करे तो उसमें शुद्धता ठहर ही नहीं सकती है।
ज्ञानानंदस्वरूप मग्नता में ही शुद्धता की स्थिति―भैया ! वस्तुस्वरूप की जिन्हें परख नहीं है, वे ही इस प्रकार की कोई अकल्पित कल्पना करते हैं। जैसे जिस समय रेलगाड़ी पहिले ही निकली होगी, लोग बतलाते है कि जब रेल निकली तो देहाती लोग उसे देखने को जुड़े, और देहाती यह कहने लगे कि आगे जो इसमें काला-काला है उसमें काली देवी रहती है और वह कालीदेवी इस गाड़ी को चलाती है। अन्य देशों में भी ऐसी कल्पना वाले लोग होंगे किंतु इस देश में ऐसी कल्पना करने वाले बहुत काल से चले आए हैं। जो बात समझ में न आयी, जिसका कार्यकारण विधान ज्ञात नहीं है, जिसका स्वरूप निर्णय में नहीं आता बस एक ही उत्तर है कि ईश्वर की ऐसी मर्जी है, उसी की यह सब लीला है। इसी से अनेक सज्जनों ने यह कहना शुरू किया कि वह ईश्वर ही सबको सुखी करता और दुःखी करता है।
पर के अकर्तृत्व व ज्ञातृत्व् में शुद्धता की स्थिति―भैया ! मान लो जो पाप कर्म करता है उन्हें फल देता है ईश्वर, तो पाप कर्म कराना भी ईश्वर के अधिकार की बात होना चाहिए अन्यथा स्वतंत्रता कहां रही ? लो यों ईश्वर ने ही पाप कराया और ईश्वर ने ही पाप का फल दिया। ईश्वर ने ही पुण्य कराया और ईश्वर ने ही पुण्य का फल दिया, तो फिर उदारता कहां रही ? किसी से पाप करा दिया और उसे दुःख दे दिया किसी से पुण्य करा दिया और उस सुख दे दिया। प्रभु अपने ज्ञानानंदानुभव से च्युत नहीं होता, प्रभु तो शुद्ध है। द्रव्यकर्म, भावकर्म और नो कर्म से रहित सारे विश्व का ज्ञायक अपने ही आनंदरस में लीन, अपने ही सहजस्वभाव के परमविकासरूप जो कि अनाकुलता से भरा हुआ है, भव्य जीवों के लिए जो आदर्शरूप है, इसके उत्तर में केवल यह स्वरूप आता है। जो प्रभु का शुद्धस्वरूप है, मुझे यह बनना है। यों आदर्शरूप है। उस प्रभु में किसी प्रकार की मर्जी या योगपरिस्पंद, क्रिया कला कुछ भी जोड़ देना यह ईश्वर के स्वरूप का अपमान है, उनके स्वरूप को हल्का बना देने की बात है। उस स्वरूप की वहाँ महिमा नहीं रहती। प्रभु परमात्मा शुद्ध है, निर्मल है, केवल है।
प्रभु की विविक्तता―अब इसके बाद में चौथा विशेषण आ रहा है कि वह विविक्त है। विविक्त शब्द बना है वि उपसर्ग पूर्वक विच्लृ धातु से विच्लृ धातु का अर्थ है द्वेधीकरण, दो टुकड़े कर देना। तो यह प्रभु संसार अवस्था में द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्म में मिलाजुला था, एक पिंडरूप हो रहा था। अब वह विविक्त हो गया है अर्थात् जिन परिणतियों से मिला हुआ था उन सबसे न्यारा हो गया है। इस रूप से देखा जा रहा है, वह स्वरूप जो पहिले के विशेषणों द्वारा देखा है। किंतु ऐसे भिन्न-भिन्न विशेषण इसलिए दिए जा रहे हैं कि उनकी पहिली अवस्था, वर्तमान अवस्था सब कुछ जाहिर हो जाय। यह प्रभु पहिले संयुक्त था अब विविक्त हो गया। पर व परभाव में जो संयुक्त है वह संसारी है और जो उससे विविक्त है वह प्रभु है। इस तरह परमात्मा के वर्णनों में यह विविक्त विशेषण है।
प्रभुता―परमात्मा प्रभु कहलाता है। प्रभु शब्द में दो शब्द है, प्र और भु। प्र का अर्थ है उत्कृष्ट और भू का अर्थ है होने वाला। जो उत्कृष्ट रूप से हो उसे प्रभु कहते हैं। परमात्मा में ज्ञानदर्शन, आनंदशक्ति ये सब है, उत्कृष्ट रूप से हैं। परमात्मा का नाम अव्यय भी है। जिसका कभी व्यय न हो उसे अव्यय कहते हैं। संसार की दशावों का व्यय हो रहा है। नरक तिर्यंच, मनुष्य, देव इन पर्यायों का विनाश हो रहा है, किंतु सर्वकर्मों के क्षय के कारण जो एक उत्कृष्ट गुण विकास की अवस्था हुई है जिसका कि नाम परमात्मत्व है उसका कभी विनाश नहीं होता। इस कारण परमात्मा अव्यय कहलाता है। परमेष्ठिता―परमात्मा को परमेष्ठी भी कहते हैं। जो परमपद में स्थित हो उसे परमेष्ठी कहते हैं। जीव का परमपद वीतराग निर्दोष गुण विकास ही है। इसके अतिरिक्त जितने भी अन्य भाव हैं वे सब विभाव हैं, निकृष्ट हैं, जीव के विपरीत हैं। ऐसे निर्दोष वीतराग सर्वज्ञ के उत्कृष्ट पद में जो ठहरा हुआ है उसे परमेष्ठी कहते हैं। परात्मा और परमात्मा―परमात्मा का नाम परात्मा भी है। पर का अर्थ है उत्कृष्ट। उत्कृष्ट आत्मा को परात्मा भी कहते हैं। यह प्रभु उत्कृष्ट है जो समस्त विश्व को जानते हुए भी रागद्वेष की तरंग में नहीं आता है और अपने आनंदरस में लीन होता है। ऐसा जो उत्कृष्ट आत्मा है वह परमात्मा है। परमात्मा का तो अर्थ बताया ही गया है। मा विशेषण और लग गया। उत्कृष्ट लक्ष्मी जहाँ हो उसे परमात्मा कहते हैं। ईश्वर―परमात्मा को ईश्वर भी कहते हैं। ईश्वर का अर्थ है जो अपने स्वाधीन ऐश्वर्य से युक्त हो उसे ईश्वर कहते हैं। ऐश्वर्य नाम उसका है जहाँ दूसरे का मुख न देखना पड़े। ऐसा ऐश्वर्य है ज्ञातृत्व, जाननरूप ऐश्वर्य की उत्पत्ति इस ज्ञान में है, ज्ञाता के द्वारा ही है, ज्ञाता से ही है, ज्ञाता के लिए है। जो आत्मा का यह शुद्ध कार्य है उस कार्य में पर की अधीनता नहीं है। रागादिक भाव, विषयकषायों के परिणाम, लौकिकयश प्रतिष्ठा के बड़प्पन का भाव ये सब कर्मविपाक का निमित्त पाकर होते हैं इस कारण यह ऐश्वर्य नहीं कहलाता है। ऐश्वर्य तो वह है जो सहज है, निर्दोष है, अपने आपके त्त्वसत्त्व के कारण है। ऐसा ऐश्वर्य है आत्मा का ज्ञान। इस ज्ञान ऐश्वर्य करि यह आत्मा सम्वेद रहा है, इसका नाम ईश्वर है। जिनरूपता―परमात्मा का नाम जिन भी है। जिसने पंचेंद्रिय का विजय किया उसका नाम जिन हुआ। इंद्रिय का विजय होता है―द्रव्येंद्रिय, भावेंद्रिय और विषयभूत पदार्थों से भिन्न ज्ञानस्वभावकरि अधिक इस निज आत्मतत्त्वत्त्व की दृष्टि करने से। इंद्रियविषयों में प्रवृत्ति तीन हेतुओं से होती है। प्रवृत्ति में द्रव्येंद्रिय पुष्ट चाहिए और विषयभूत साधना सामने चाहिए और इसका उपयोग भी उसमें लगना चाहिए। इस उपयोग का नाम भावेंद्रिय और शरीर की इंद्रिय का नाम है द्रव्येंद्रिय और विषयभूत साधन का नाम है विषय। इनसे विविक्त शुद्ध चिद्रूप के दर्शन से इंद्रियविजय होता है। इंद्रियविजय का उपाय―भावेंद्रिय खंडज्ञान रूप है। ज्ञानस्वभाव अखंड है और ज्ञानस्वभाव का जो शुद्ध परिणमन है वह भी अखंड है, सर्वात्मक है, किंतु क्षायोपशमिक अवस्था में जो भावज्ञान चलता है, भावेंद्रियरूप से ज्ञान की वृत्ति होती है वह सब खंडज्ञान है। प्रभु पुद्गल को सर्वरूप से एक समय में निहारते हैं पर हम आप स्कंध पुद्गल को जब सरूप से निहारते हैं तब रूप, गंध, स्पर्श से नहीं निहार पाते हैं। किसी चीज को छुवा तो स्पर्श के रूप से देखते हैं रसादिक के रूप से नहीं निहार सकते हैं। चारों का ज्ञान अथवा विषयभूत पांचों का ज्ञान स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द इनका ज्ञान एक साथ नहीं होता। एक समय में एक स्वरूप का ज्ञान होता है इसलिए यह खंडज्ञान है।
एक काल में इंद्रियों की एक विषयता―कभी कोई लंबे, चौड़े रेन व तेल के पापड़ बनाए और खाये तो उसे भले ही लगता हो कि मैं रस चख रहा हूँ, रूप भी देख रहा हूँ, उसका गंध भी सूँघ रहा हूँ, स्पर्श भी हो रहा है और कुड़कुड़ाहट के शब्द भी सुनाई दे रहे हैं किंतु इन पांचों के ज्ञान में भी कौवा की आँख फिरन जैसा अंतर है। यह जल्दी-जल्दी मन चलता है और तीव्र गति में यह विदित नहीं होता कि क्रम से जान रहा हूँ किंतु भावेंद्रिय का स्वरूप ही क्रम-क्रम से जानने का है। जैसे 50 पानों की गड्डी रखी है और उस पर कोई बड़े वेग से सूई चुभोता है तो भले ही ऐसा लगे कि एक साथ ही पचासों पान भिद गए पर सूई जब पहिले पान को छेद रही है उसी समय दूसरे पान को नहीं छेद रही है। ऐसे ही इन विषयों का ज्ञान मनोवेग से शीघ्र ग्रहण में हो रहा है परंतु क्रम वहाँ भी है।
अखंड, चेतन व असंग आत्मस्वभाव के आश्रय का प्रताप―ज्ञानी जीव अपने को अखंड ज्ञानस्वभावी देखता है। अखंडज्ञान वाला निहारता है और ऐसी अखंड ज्ञानमय अपनी प्रतीति रखने से उस खंड ज्ञान पर विजय होती है। ऐसे ही ये द्रव्येंद्रिय आँख, नाक, कान वगैरह पौद्गलिक हैं, अचेतन हैं, किंतु मैं चेतन हूँ। सो अपने आपके चैतन्य भाव के अनुभव द्वारा इन द्रव्येंद्रिय पर विजय करता हूँ। ये विषयभूत पदार्थ संग हैं। प्रसंग में आते हैं तो ग्रहण में होते हैं, किंतु मैं आत्मा सदा असंग हूँ। कितने ही परिवार के बीच होऊँ, कितने ही मित्रजनों के मध्य होऊँ और कितनी ही उलझनों और संपदावों के मध्य होऊँ, फिर भी मैं सबसे असंग हूँ, किसी भी परतत्त्व में मिला जुला नहीं हूँ। ऐसी अपने आपकी असंगपने की भावना से इन विषयों को जीता जा रहा है। प्रभु परमात्मा सर्वप्रथम इंद्रियविजयी हुए हैं पश्चात् मोहविजयी हुए हैं, इस कारण उनका नाम जिन पड़ा। पश्चात् कषायविजयी हुए सो जिन नाम पड़ा। फिर समस्त कषायों को जीत लिया। सो परमात्मा जिन कहलाता है। प्रभु के अनेक नाम व अजरत्व―भैया ! प्रभु के थोड़े से नाम बताये गए हैं। यों तो हजारों नाम उनके लिए जा सकते हैं, और 1008 नाम तो सहस्र नाम के श्लोकों में निबद्ध हैं। उनमें जितने प्रभु में गुण हैं, जितनी करामात हैं उन गुण और करामातों की दृष्टि पर प्रभु के नाम चलते हैं। जैसे प्रभु अजर हैं, प्रभु में कभी बुढ़ापा नहीं आता। अरहंतदेव का तो परमौदारिक शरीर है। अरहंत होने से पहिले कोर्इ मुनि बूढ़ा हो तो अरहंत होने पर बुड्ढा नहीं रहता या किसी के फोड़ा फुन्सी निकली हो या कुष्ट रोग हो गया हो या किसी कारण कुछ कमर टेढ़ी हो गयी हो और अरहंत हो जाय और ऐसा ही शरीर अरहंत होने के बाद रहे तो कितना अटपट सा लगेगा। ये भगवान् टेढ़ी कमर के हैं, भगवान् की पीठ में फोड़ा निकला है ऐसा कुछ रूपक समझ में भी नहीं आता और चित्त कुछ गवाह भी नहीं देता। भगवान् सब एक प्रकार के हैं। भले ही उनकी बनावट में थोड़ा अंतर हो पर वह अंतर इस तरह का होता है जैसे पाषाण से मूर्ति बनाते हैं तो एक मूर्ति से दूसरी मूर्ति की भी शकल नहीं मिलती। मगर मोटे रूप से एक सा ही आकार है। यदि भगवान् बूढ़े हों तो लोग कहें कि अब बूढ़े भगवान् जा रहे हैं, तो यह कुछ भगवत्ता नहीं जाहिर हुई, परमौदारिक शरीर ही तो है जो युवा जैसा पुष्ट शरीर है, नीरोग है, सर्व प्रकार के धातु उपधातु से रहित है सो अरहंत भी अजर है और सिद्ध भगवान् के तो शरीर ही नहीं है। कहां बिराजेगा यह बुढ़ापा ?
आत्मा की अजरस्वरूपता―भैया ! प्रभु अजर ही हैं और ऐसा ही अजर स्वरूप जहाँ बुढ़ापा नहीं है हम और आप में विराजता है। कैसी ही वृद्धावस्था हो गयी हो, दाँत टूट गए हों, कानों से कम सुनाई देता हो, लार थूक भी मुँह में न थम सकता हो, चाल भी चलते न बने, पैर भी कहीं के कहीं उठें, कैसे भी स्थिति हो शरीर की, वह तो इस शरीर का ख्याल छोड़कर क्योंकि शरीर में आत्मस्वरूप नहीं व आत्मा में शरीर स्वरूप नहीं, दोनों पृथक् सत् हैं, सो इस देह की सुध भूलकर अपने आपके स्वरूप में दृष्टि लगाए तो वह भी अपने को बूढ़ा अनुभव नहीं कर सकता। प्रभु तो व्यक्त अजर हैं।
प्रभु का अमरत्व―प्रभु अमर हैं उनका कभी मरण नहीं होता है। अरहंत भगवान् के मरण तो होता है, आयु का क्षय उनके भी है पर उनके मरण का नाम है पंडित-पंडितमरण। जिस मरण के बाद जन्म न हो उस मरण का नाम मरण नहीं है। मरण वस्तुत: उसे कहेंगे जिसके बाद नया जन्म हो। अरहंत भगवान् के पुन: जन्म नहीं होता। सो अरहंत भी अमर है। सिद्ध के तो शरीर ही नहीं है तो मरण कहां बिराजेगा ? वे भी अमर हैं। अब जरा अपने स्वरूप को निहारो तो यह स्वरूप भी अमर है। जीव को मरण का भय सबसे बड़ा भय रहता है। पर मरण का भय तब तक है जब तक इस जीव ने बाह्यपदार्थों में अपनी ममता बनायी है अथवा अपने आप में धर्मसेवन नहीं किया है।
मरणभय के कारण―भैया ! अज्ञानी जीव को तो मरण का नाम सुनकर यों भय हो जाता है कि हाय अब यह सब मौज छूटा जा रहा है ये समागम छूट जायेंगे, ये बाल बच्चे परिवार ये सब छूट जायेंगे। कितनी मेहनत से यह मकान बनाया, इतनी बड़ी जायदाद खड़ी की और यह सब छूटा जा रहा है―इस ख्याल से उस अज्ञानी को मरण का भय बढ़ जाता है। और ज्ञानी हुआ तो मरण का नाम सुनकर यदि कुछ खेद आयेगा तो इस बात का आयेगा कि अहो जिंदगी व्यर्थ बीत गयी। मैं आत्मदृष्टि धर्म का सेवन नहीं कर पाया और बिना धर्म के यह जीवन चला गया, इस बात का उस ज्ञानी को खेद होता है।
ज्ञाता के मरणभय का अभाव―जिसने अपने जीवन में धर्म की साधना में दृढ़ता की है उसे मरण समय में किसी भी प्रकार का खेद नहीं होता है। वह तो जानता है कि जैसे पूरे के पूरे हम यहाँ है वैसे ही पूरे के पूरे हम जहाँ कहीं भी जायेंगे वहाँ रहेंगे। वह अपने परिपूर्ण आत्मतत्त्व को अपनी दृष्टि में लेता है। जैसे किसी बड़े आफिसर का तबादला हो तो उसे बड़ी सुविधा दी जाती है। एक मालगाड़ी का डिब्बा भी मिलता है। यहाँ भी नौकर चाकर, जहाँ पहुंचेगा वहाँ भी नौकर चाकर। जैसा प्रेम यहाँ के लोगों से रह आया वैसा ही प्रेम जहाँ जायेगा वहाँ के लोगों से होगा। ऐसा जानकर वह हुकुम भर दे देता है कि वहाँ चलना है। लो सारा सामान चकिया चूल्हा, गाय, बछिया तक सब नौकर चाकर उसके संग लिए जा रहे हैं। जहाँ वह पहुंचेगा वहाँ भी व्यवस्था होगी, सत्कार होगा। जहाँ इतने सब साधन मिल रहे हैं वहाँ ऐसे आफीसर को तबादले के समय क्लेश काहे का होगा ? ऐसे ही ज्ञानी जीव जानता है कि मेरा तबादला हो रहा है, मैं स्वगुणपर्यायात्मक हूँ, सो सर्व स्वगुणपर्याय सहित जा रहा हूँ। उसे क्लेश नहीं होता।
परिपूर्णस्वरूप की प्रतीति―यह शरीर छूटा तो और शरीर मिलेगा। इस स्थान को छोड़ा तो और स्थान पर पहुंच जायेंगे। यहाँ का समागम छूटा तो नया समागम मिलेगा। अथवा इस ज्ञानी जीव को यह विकल्प नहीं होता, वह तो यों देखता है कि अपने अनंत ज्ञानादिक समग्र गुणों से परिपूर्ण यह मैं लो जा रहा हूँ और परिपूर्ण ही जा रहा हूँ, परिपूर्ण ही रहूंगा। जो मेरा न था वह मेरे साथ न जायेगा। जो मेरा है वह मेरे से कभी छूट नहीं सकता। ये ज्ञानादिक मेरे हैं सो आगे भी सदा साथ रहेंगे। ये समस्त पुद्गल द्रव्य अथवा अन्य भाव द्रव्य ये यहाँ भी मेरे नहीं हैं तो आगे भी मेरे न होंगे, ऐसा जानकर इस ज्ञानी को मरण समय में कोई कष्ट नहीं हैं।
समाधिमरण की साधना―भैया ! मरण समय की साधना बना लेना सर्वप्रथम कर्तव्य है अन्यथा जिंदगी भर तो किया सब कुछ और मरण समय में रहा संक्लेश तो सब करा कराया व्यर्थ सा हो गया। सबसे बड़ा काम यह पड़ा है कि जीवन भर अपने आपको ऐसी ज्ञान और नीति में लगावें कि मरण समय वेदना का अनुभव न हो। विषय कषाय न जगें, ममता का प्रादुर्भाव न हो और अपने इस चैतन्यस्वरूप को निहारें, जिसके प्रताप से देह से छुटकारा मिले। यह चीज जिन्हें मिली है उन्होंने तो सब कुछ किया और एक यह न मिली तो उसने कुछ नहीं किया। परमात्मा के नामों से परमात्मा की विशेषतावों का परिचय―परमात्मा के अन्य नाम अनेक नाम हैं। आप परमात्मा के नाम लेते जाइए व विशेषता जानते जाइये, परमात्मा अक्षय है और रागरहित है, सर्वप्रकार के भयों से परे है, इसमें रंच विकार नहीं हैं, अविकार है, निष्कलंक है, अशंक है, निरंजन है, सर्वज्ञ है। जितने भी भगवान् के गुण हैं उन रूप नाम लेते जाइए, ये सब परमात्मा की विशेषतायें है।
अंत: परमात्मत्व–समाधितंत्र में सर्वप्रथम यहाँ से वर्णन उठाया है कि लोक के सब जीवों में 3 प्रकार के जीव मिलेंगे बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा। इनमें उत्कृष्ट आत्मा है परमात्मा और परमात्मा की भी जाति आत्मा और अंतरात्मा की भी जाति आत्मा। इसलिए यह मैं भी बहिरात्मापन को छोड़कर परमात्मत्व प्राप्त कर सकता हूँ। परमात्मा होने के लिए कोई नई चीज नहीं लानी पड़ती है किंतु जो नई बात लगी है उसको मिटाना पड़ता है। परमात्मत्व तो स्वरूप ही है। जैसे चौकी को शुद्ध करने के लिए कोई उसमें नई चीज नहीं लगानी पड़ती है किंतु जो चीज लगी है बीट है, मल है, जो चीज दूसरी लगी है उसको मिटाने की जरूरत है, चौकी शुद्ध हो जायेगी। इसी तरह आत्मा को शुद्ध करने के लिए कोई नई बात नहीं करनी पड़ती है किंतु जो भूल में नये काम कर डाले हैं उन कामों को दूर करना है। इसका स्वरूप ही परमात्मापन का है। अज्ञान में अटपट नई बातें―भैया ! बतावो इस अज्ञानी ने नए काम क्या कर डाले ? जो इसके स्वभाव में नहीं हैं, जो इसके सत्त्व के कारण नहीं हैं और लग गयी हैं वे सब नई बातें हैं। अनादि काल की पुरानी होकर भी यह नई बात है क्योंकि स्वरूप में नहीं है। रागद्वेष, विषयभोग, कषाय, ये सब आत्मा के स्वभाव में नहीं हैं, ये परंपरा से लग रहे हैं अनादि से, पर इतने पुराने होते हुए भी चूंकि जब आते हैं तब यों ही आते हैं, स्वरूप से नहीं आते हैं। तो इन लगे हुए उपद्रवों को दूर करने से यह परमात्मत्व प्रकट हो जाता है। ज्ञायकत्व की टंकोत्कीर्णवत् निश्चलता―जैसे कोई कारीगर पत्थर की मूर्ति बनाता है तो कारीगर वहाँ कुछ नई चीज नहीं लगाता है किंतु जो प्रकट की जाने वाली चीज है, वे अवयव, अभी मौजूद हैं, कारीगर को दिख गये। अब कारीगर उस भीतर पड़ी हुई मूर्ति के आवरक जितने पाषाण खंड हैं, जो आवरण किए हुए हैं उनको दूर करता है। करता कुछ नहीं है नई बात किंतु जो आवरक हैं उन्हें दूर करता है। उन पत्थरों को दूर करते-करते जब सब आवरण दूर हो जाते हैं, सूक्ष्म आवरण भी दूर हो जाते हैं तब वह मूर्ति प्रकट हो जाती है। यों ही इस परमात्मस्वरूप पर विषय-कषायों के आवरण लगे हैं। ज्ञान की हथौड़ी, ज्ञान की छेनी से ज्ञानरूप कारीगर जब उन आवरणों को हटा देता है तो जो है स्वभावत: वही प्रकट हो जाता है, यही परमात्मस्वरूप है।