वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 65
From जैनकोष
नष्टे वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न नष्टं मन्यते तथा ।
नष्टे स्वदेहेऽप्यात्मानं न नष्टं मन्यते बुध:॥65॥
पुन: दृष्टांतपूर्वक आत्मा की देह से विविक्तता का समर्थन – जैसे कोई भी पुरुष वस्त्र के नष्ट हो जाने पर अपने आपको नष्ट हुआ नहीं मानता है, इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष अपने देह के नष्ट हो जाने पर भी अपने आपके आत्मा को नष्ट हुआ नहीं मानता है । वस्त्र जल जाय, फट जाय, किसी प्रकार नष्ट हो जाय तो उस कमीज कोट आदि के नष्ट हो जाने पर कोई यह तो नहीं मानता की मैं नष्ट हो गया हूं । यह लौकिक पुरुषों का दृष्टांत दिया है क्योंकि उन्हीं लोगों को समझाना है । इसी तरह अपना देह नष्ट हो जाय तो वहां भी ज्ञानी आत्मा को नष्ट हुआ नहीं मानता है ।
नाश का भाव – नाश का मतलब यहां सर्वथा नाश से नहीं है क्योंकि जो पदार्थ सत् है उसका सर्वथा नाश कभी नहीं होता, अवस्थाएँ बदलती हैं । शरीर का नाश क्या है ? शरीर का आत्मा से अत्यंत पृथक हो जाना यही शरीर का नाश कहलाता है । शरीर तो पीछे जलता है, जब आत्मा शरीर से निकल जाता है अथवा कोई उपद्रवी शरीर को जिंदा ही जला दे वह सब नाश में शामिल है । शरीर से आत्मा के अलग होने का नाम नाश है, फिर यह शरीर किसी भी अवस्था को प्राप्त हो, चाहे गढ़े, चाहे जले, चाहे यों ही छिन्नभिन्न हो जाय वह सब नाश ही है । अर्थात् जब यह जीव मरण कर रहा है, एक भव को छोड़कर दूसरे भव में जा रहा है तो वहां यह पुरुष अपने को नष्ट हुआ नहीं मानता है ।
भिन्न की प्रीति कैसे – भैया ! जब इस देह से भी हमारी प्रीति नहीं निभ पाती है, देह को छोड़कर चला ही जाना पड़ता है तब अन्य वस्तुवों की प्रीति की क्या आशा रखना ? इस जगत् में कुछ भी निदान बांधना, कुछ भी आशा लगाना केवल क्लेश के लिए ही है । बड़े-बड़े पुरुष भी पापोदय आ जाने पर पददलित हो जाते हैं । जो भी समागम है उस समागम के स्नेह में आत्मा को किसी भी प्रकार का लाभ मिलता हो तो बताइये । अपने आपमें देख लीजिए, आत्मा को क्या लाभ मिलता है ? चिंताएं, शोक, आकुलता, भय, शंकाएँ, उपद्रव परवस्तुओं के स्नेह होने पर आ खड़े होते हैं । जब देह ही अपना बनकर नहीं रह सकता तो अन्य की क्या आशा की जाय ? मोही मोहियों में ही ऐसा कहा करते हैं कि हमारी तुम्हारी अति गाढ़ी मित्रता है और और भी प्रेमलाप में जो कुछ भी हृदय की बात कह सकते हैं कह लेते हैं, पर वास्तविकता यह है कि कोई मनुष्य किसी दूसरे से प्रीति कर ही नहीं सकता है । अपने आपमें कषाय जगी और उस ही विषय में अपने आपको रंग लिया जाता है, उससे वेदना होती है । यह किसी दूसरे में कुछ कर ही नहीं सकता है ।
शरीर और आत्मा का परस्पर अत्यंताभाव – शरीर एक भिन्न पदार्थ है, आत्मा भिन्न पदार्थ है । आत्मा तो एक ही पदार्थ है और यह शरीर अनंत परमाणुवों का पिंड है । आत्मा में जो परिणमन है वह किसी भी परमाणु में नहीं है और इस देह के परमाणुवों में किसी भी एक परमाणु का जो परिणमन है वह अन्य पदार्थ में नहीं है । ऐसी सर्वपदार्थों की स्वतंत्र स्वतंत्र परिणति चल रही है । वे समस्त पदार्थ अपने-अपने समय पर अपनी-अपनी नवीन अवस्था उत्पन्न करते हैं और पुरानी अवस्था का व्यय करते हैं । इसमें कौन सी आत्मा के विनाश की बात है, परंतु दूसरे पदार्थ में यह मेरा है, यह मैं हूं, ऐसा मान लिया तब उस अन्य पदार्थ के व्यय होने पर वियोग होने पर इसे क्लेश उत्पन्न होता है और यह सोच बैठता है कि मेरा सर्वस्व नाश हो गया । जैसे लोग कहा करते हैं कि आज इतने पैसे बरबाद हो गए, नष्ट हो गए । अरे कहां नष्ट हो गए ? जहां हैं वहां होंगे । चोरी हो गयी तो कहते हैं कि बरबादी हो गयी । अरे कहां बरबादी हो गयी ? वह धन यहां नहीं है तो कहीं अन्यत्र है, सुरक्षित है, उसका विनाश नहीं हुआ । हां वह इसके समीप नहीं है तो किसी दूसरे के समीप पहुंच गया ।
परमार्थत: विनाश का अभाव – भैया ! इसके समीप यह सब नटखट पहिले भी न था, पहिले भी इससे अलग था । परंतु जब घर में रखे हुए ढेर को देख-देखकर यह कल्पना किया करता था कि यह मेरा धन है, अब उस धन के चले जाने पर इस कल्पना का समय नहीं रहा, क्योंकि सामने नहीं है, इसलिए बरबादी कहते हैं । चीज तो जहां की तहां है । हमारे मन के अनुकूल बात नहीं होती है तो उसे बरबादी कहते हैं और जब मन के अनुकूल बात हो गयी तो उसे आबादी कहते हैं । कितनी सीधी सी बात है । वस्त्र नष्ट हो गया तो कौन मानता है कि मैं नष्ट हो गया हूं । वस्त्र जुदा पदार्थ है और यह मनुष्य जुदा पदार्थ है । इसी प्रकार से यह ज्ञानी जानता है इस राज को कि यह देह अलग हो रहा है तो क्या हो गया ? देह में देह है, मुझमें मैं हूं, इससे मेरा विनाश कहां है । ज्ञानी पुरुष ऐसी स्थिति में अपना विनाश नहीं समझता है । ऐसे ही एक दृष्टांत द्वारा इस विषय की अंतिम बात भी कह रहे हैं ।