वर्णीजी-प्रवचन:सहजपरमात्मतत्त्व - गाथा 2
From जैनकोष
शुद्धं चिदस्मि जपतो निजमूलमंत्रं, ॐमूर्ति मूर्तिरहितं स्पृशत: स्वतंत्रम् ।
यत्र प्रयांति विलयं विपदो विकल्प: शुद्धं चिदस्मि सहजं परमात्मतत्त्वम् ।꠰2꠰।
विकल्पविलयधाम शुद्ध चित्स्वरूप सहज परमात्मतत्त्व की भावना―मैं शुद्ध चित्स्वरूप सहज परमात्मतत्त्व हूँ, मैं शुद्ध चेतन हूँ । चित् शब्द से अभिधेय जो भी एक पदार्थ अनुभव में आया उस ही को लखकर ज्ञानी के बार-बार यह भावना होती है कि मैं शुद्ध चेतन हूँ । यहाँ शुद्ध का अर्थ पर्याय शुद्ध नहीं कह रहे, अपने बारे में जो अपने को विचारना चाहिए कि मैं शुद्ध चेतन हूँ वह अर्थ है । यहाँ अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन आदिक से संपन्न शुद्ध पर्याय से मतलब नहीं है, किंतु अपने आपकी सहज सत्ता के कारण मेरे में स्वयं जो स्वभाव है उस स्वभाव को निरख रहे हैं कि यह शुद्ध है तो इस स्वभाव में न किसी परद्रव्य का प्रवेश है, न स्वभाव में विकार ही है ऐसा यह स्वभावदृष्टि से देखा गया मैं शुद्ध चेतन हूँ, पर से निराला, परभाव से निराला । मैं यों शुद्ध चेतन हूँ, इसका जाप करने वाले पुरुष के, इसकी निरंतर उपासन करने वाले पुरुष के जिस जगत् विकल्परूप विपत्तियां प्रलय को प्राप्त होती हैं वह मैं सहज परमात्मतत्त्व हूँ । पदार्थ में नवीन पर्याय की तो उत्पत्ति होती है और पूर्वपर्याय का क्या होता है? उसे कोई विनाश शब्द से कहता हे, कोई व्यय शब्द से कहता है, कोई विलय शब्द से कहता है । वह पूर्व पर्याय कोई स्वतंत्र पदार्थ तो थी नहीं, वह इस ही पदार्थ की अवस्था थी । जब उसमें दूसरी अवस्था आयी तब पहिली अवस्था दूसरी अवस्था के रूप में ढलकर विलीन हो गई । विलीन होकर वह पहिली अवस्था भी क्या उस द्रव्य में रही ! हां एक दृष्टि से द्रव्य में रही और एक दृष्टि से द्रव्य में न रही । चूंकि परद्रव्य के स्वरूप को जब निरखते हैं कि यह अनादिअनंत है और पर्याय व्यतीत हो चुकी हो, लेकिन हम अब उस द्रव्य के अनादिअनंत स्वरूप में से उस पर्याय को कट्ट देते हैं, Blank हो जाता है तब द्रव्य का स्वरूप नहीं बैठता है, इस दृष्टि से वह पूर्व पर्याय द्रव्य में विलीन है, इस तरह से विलीन सिद्ध होता है । और, उस द्रव्य में पर्याय रही है, नहीं, उसका अब कुछ भी सत्त्व नहीं, इस कारण उसका विनाश हो गया । हम आप एक चेतन पदार्थ हैं, जब हमारा दुःखरूप अनुभव होता है और उसके बाद जब कुछ ज्ञान प्रकाश हुआ तो दुःखरूप पर्याय मिटकर शांति परिणमन हुआ तो शांतिरूप परिणमन के समय दुःखरूप पर्याय का क्या हाल हुआ? दोनों दृष्टियों से दोनों उजर हैं । यह दुःखरूप पर्याय अब शांति परिणमन में बदल गयी, उसकी विलीनता हो गई और दुःखरूप पर्याय अब चूंकि परिणमन में रही नहीं इस कारण उसका विनाश हो गया ।
स्वाभिमुखोपयोग में क्लेशविलयहेतुता―हम अपने आपमें सारी दुःख पर्यायों का नाश करें, इसका उपाय है यह कि मैं अपने को इस तरह निरखूं कि मैं शुद्ध चेतन हूँ, शुद्ध चित्स्वरूप हूँ, यह है अपना मूल मंत्र, निज का मूलमंत्र है, हम आपका शरण सिवाय अपने आपके इस सहज सिद्ध स्वरूप के निकट पहुँचने के अन्य कुछ नहीं है, क्योंकि निज को छोड़कर किसी भी परविषय में उपयोग लगाया जाये, स्नेह, मोह, कुछ भी विकल्प लगाये जायें तो प्रथम तो यह विडंबना कर ली इसने कि यह उपयोग अपने ओघ से हट गया, अपने स्रोत से हट गया । यद्यपि उपयोग आत्मा के प्रदेशों को छोड़कर बाहर नहीं गया, लेकिन जिन्होंने अपना मुख पर की ओर किया वे तो यही से गये । जैसे बैट्री छोटीसी होती, जरासा बल्ब लगा होता, उसे भीतर की ओर मोड़ दिया तो भीतर प्रकाश है, बैट्री वहीं की वहीं है । जरा बल्ब को दूसरी ओर मोड़ दिया जाये तो भीतर कुछ प्रकाश नहीं है, बाहर चला गया, इसी तरह हमारा वह उपयोग जब भीतर को मुड़ा हुआ नहीं है तो भीतर में कुछ भी प्रकाश नहीं है, भीतर की कुछ सुध नहीं है और इस स्थिति में चूंकि यह उपयोग बाहर की ओर अभिमुख है तो बाहर का कुछ प्रतिभास है । सो बाह्य पदार्थ मेरे आधीन हैं नहीं, मैं जैसा चाहूं वैसा बाह्य को बना दूं ऐसी सामर्थ है नहीं । बाह्य अपने परिणमन से चलते हैं । जब है तब है, जब नहीं है तब नहीं है । ऐसी स्थिति में अब यह उपयोग अपने घर को छोड़कर तो चल दिया । अब बाहर उसका टिकाव नहीं तो वह उपयोग भ्रम भ्रमकर दुःखी ही है । जैसे किसी सुखी संपन्न घर से कोई बच्चा कषाय करके घर छोड़कर निकल गया । अब बाहर जहाँ जायेगा वहाँ उसे क्या? किसी रिश्तेदारी में जायेगा कुछ दिन टिकेगा, कहीं टिकेगा, वहाँ टिकाव हो नहीं सकता । यहाँ घर छोड़ दिया तो जैसे यह भ्रमकर दुःखी होता है इसी तरह यह उपयोग अपने घर को छोड़कर गया । जहाँ समृद्धि है, जहाँ अनाकुलता है, बड़ी संपन्नता है ऐसे अपने आत्मा के घर को छोड़कर यह उपयोग चला गया । अब यह उपयोग किसी प्रेम वाले के पास रहे, जिससे स्नेह हो उसके निकट बसे तो कहाँ तक वह हमारे उपयोग को अनुकूल रख सकेगा, सुख में रख सकेगा? रखता तो अब भी नहीं है, पर थोड़ा मान लो, एक आश्रयआश्रयी संबंध से कुछ रख दिया तो कब तक टिकेगा? उनके हाथ की बात नहीं है कि वे मेरे उपयोग को संपन्न बना सकें । मैं ही अपने उपयोग को अपने अभिमुख करके संपन्न बना सकता हूं ।
यथार्थ ज्ञानित्व की आदेयता―धन्य हैं वे ज्ञानी पुरुष जिनके उपयोग में वस्तु का स्वतंत्र यथार्थ स्वरूप बहुत दृढ़ता से अवस्थित हो गया, यथार्थ ज्ञान हो गया जिसके कारण अब उनका उपयोग कहीं बाहर में नहीं रमता । जिनका उपयोग बाह्य पदार्थों में न रमे, एक निज तत्त्व में ही रमें उनकी शांति, उनकी पवित्रता, उनका मोक्षमार्ग आदर्शरूप है । तो हम आप सुखी शांत होने के लिए प्रयत्न भारी करते हैं, पर कितना श्रेष्ठ समागम पाकर भी कि मनुष्य हुये, इंद्रियां सब समर्थ हैं, मन भी हमारा श्रेष्ठ है, वस्तुतत्त्व को समझने की योग्यता वाले हैं, शास्त्र भी ऐसे विशद स्पष्ट मिले हैं कि जिनके बांचने से हमें तथ्य का बोध होता है और यत्र तत्र शिक्षक भी मिलते हैं, इतना सुगम श्रेष्ठ समागम पाकर भी इस ओर से तो हम दूर रहें और बाह्य के उपयोग के लिए धनवैभव आदिक के संचय मात्र के लिए बाहर ही बाहर उपयोग को भ्रमाये तो यह हमारे लिए बहुत बड़ी गलती की बात होगी जिसकी पूर्ति किसी प्रकार नहीं हो सकती । ये प्राप्त समागम इतने योग्य और दुर्लभ हैं कि यहाँ यदि आत्मा के ज्ञान का हम यत्न न कर सके, तो समझिये कि इस त्रुटि की पूर्ति अन्य प्रकार नहीं हो सकती ꠰ हम समझें अपने आपको कि मैं आत्मा हू । कुछ हूँ ना । किसी शब्द से भी कह लीजिए सबके अंदर मैं मैं की कुछ ध्वनि तो होती है । तो असल में वह मैं है कैसा? इतनी ही बात तो जाननी है । क्यों लग रही बड़ी कठिन । जिसके लिए मैं निरंतर मैं मैं कहता हूँ बार जिस मैं से इतना बड़ा संबंध रहा करता हे कि सारा काम कर लो और इस मैं का काम न करो । जैसे सबको तो खिलाने पिलाने, पहिनाने बढ़ाने, रहने आदि की तो खूब व्यवस्था करो और अपने आपकी ओर कुछ भी ध्यान न रहे, ऐसा करता हुआ तो कोई भी नजर नहीं आता ।
स्वात्मा की सर्वाधिकप्रियता―सब को सबसे अधिक प्रिय है अपना मैं । अपने आपको अपना आत्मा ही सबसे अधिक प्रिय है, दूसरा नहीं । दूसरे पुरुष भी प्रिय बनते हैं, प्रिय नजर आते हैं तो उन पुरुषों से हमारा संबंध है क्या ? संबंध तो कुछ भी नहीं है, पर हमने अपने आपमें विकल्प बनाया है कि दूसरे का भला हो, दूसरे को शांति हो, इस तरह हम जान सके तो हमारे विकल्प मिट सकेंगे, हम शांत हो सकेंगे । तो हम अपनी विकल्प विपदाओं को शास्त्र करने के लिए ही ऐसा यत्न करते हैं जिससे कहा जाता कि हमारा इनमें प्रेम है । वस्तुत: खुद को खुद ही प्यारा है, दूसरा प्यारा नहीं है एक घटना ले लो कोई मनुष्य अभी बच्चा है तो उससे कोई पूछे कि तुझे सबसे प्यारी कौनसी चीज है? तो उसकी कुछ बात समझ में आयेगी कि इस बच्चे को सबसे प्यारी है उसकी मां की गोद । मां की गोद पाकर वह बच्चा ऐसा निर्भय हो जाता है कि मानो जगत में उसे कोई संकट नहीं है जब वह 5-6 वर्ष का बालक हुआ तो उसकी मां गोदी में जबरदस्ती बैठाये तब भी वह नहीं बैठता, वह खेलने कूदने के लिए भागता है । अब उसे माँ की गोद भी प्यारी न रही, उसे खेल कूद प्यारे हो गए । कुछ और बड़ा बालक बना तो उसे विद्या प्रिय हो गई, नई-नई जानकारियां करना उसे प्रिय हो गया । कुछ और बड़ा हुआ तो डिग्री प्रिय हो गई । कुछ और बड़ा हुआ तो स्त्री प्रिय हो गई, फिर बच्चे प्रिय हो गए, फिर धन प्रिय हो गया । देखिये बराबर ज्यों-ज्यों उस मनुष्य की उम्र बड़ी होती जाती है त्यों-त्यों उसकी प्रियता बदलती जा रही है । कभी कुछ प्रिय था कभी कुछ । जब कभी खबर आयी कि घर में आग लग गयी तो वह घबड़ाकर घर भागता है । तो घर में से झट बच्चों को निकाला, और भी सामान निकाला । आग बहुत तेज बढ़ गई, एक बच्चा अभी घर के अंदर से नहीं निकल पाया तो वह लोगों से कहता है―अरे भाई, कोई हमारे बच्चे को निकाल दो, हम 10 हजार रुपये इनाम देंगे । लो अब उसे रुपये भी प्रिय न रहे, बच्चे भी प्रिय न रहे । अब उसे अपने आपकी जान प्रिय हो गई । खैर यह घटना तो हुई और इस घटना के बाद उसे ज्ञान जग जाये और बन जाये साधु, तो सब विकल्प छोड़कर शुद्ध, चिदानंदघन आत्मतत्त्व ही जिसको प्रिय बन जाये तब उस साधु अवस्था में जब यह चिदानंदस्वरूप आत्मतत्त्व ध्यान में रहता है उस समय कोई आकर उपसर्ग करे, जान ले, प्राण हरे तो उस समय वह अपने ज्ञान ध्यान में रत रहे, प्राणों की भी परवाह न करे, तो लो उसे अब प्राण भी प्रिय न रहे, किंतु ज्ञानसाधना, आत्मसाधना ये प्रिय हो गए । तो अंत में क्या प्रिय रहा ? आत्मा का अंतस्तत्त्व । तो ये प्रिय बदलते-बदलते अंत में प्रिय क्या रहा ? आत्मा तो प्रियतर और प्रियतम अपने को अपने आप है, जिसके आश्रय से, जिसको ज्ञात करने से शरीर मिलने का संकट भी दूर हो जाता है, कर्मबंधन का संकट भी दूर हो जाता, तब समझिये कि सारे संकट दूर हो जाते हैं । तो जो समस्त विपदाओं के दूर करने की बात हैं उसकी ओर से तो हो उपेक्षा और जो समस्त संकटों को लंबा करने का उपाय है उसमें हो रति, तब इस जीव को क्या कहा जाये? इसे दयनीय न कहा जायेगा क्या?
शुद्ध चित्स्वरूप का स्वीकरण―अपना मूल-मंत्र यह है कि यह दृष्टि में रहे, यह ध्यान में रहे कि मैं सबसे निराला केवल अपने शुद्ध चित्स्वरूपमात्र सहज परमात्मतत्त्व हूँ । इसका जो जपन करते हैं, उनके विकल्परूप विपत्तियां नष्ट होती हैं, विलीन होती है । वे जहाँ विलीन होती हैं, वही तो मैं हूँ । जो पुरुष अपने आपके आधीन रहने वाले अमूर्त स्वरूप को स्वीकार करके स्पर्शन करता है, अभाव अपना मान लेता है, उसके विकल्प विपत्तियां नष्ट हो जाती हैं, स्वीकार शब्द का क्या अर्थ है? स्व इव अथवा स्व करोति इति स्वीकार: । स्व मायने अपना आप । जो अपना कर ले उसे कहते हैं स्वीकार । अपना करने के मायने हैं स्वीकार । केवल वचन के मायने स्वीकार नहीं, केवल हां कर दिया उसके मायने स्वीकार नहीं, किंतु अपने अंदर में अपना बना ले उसके मायने हैं स्वीकार ꠰ तो जो स्वपदार्थ नहीं है, देह वैभव घर आदिक जो भिन्न पदार्थ हैं, उनको यदि स्व बना लें तो उसे कहते हैं मिथ्यात्व तो यह मैं स्व स्वतंत्र हूँ, स्व के ही आधीन हूँ, स्वयं ही सत्स्वरूप हूँ । चाहे इसकी कुछ स्थितियाँ बनें, इसका सत्त्व तो इसमें ही है, दूसरा नहीं है, ऐसा यह मैं मूर्तिरहित हूँ, इसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं, काला, पीला, नीला आदि के इसमें रंग नहीं, खट्टा, मीठा, कडुआ आदि के रस नहीं, सुगंध दुर्गंध नहीं ठंडा-गर्म आदिक कोई स्पर्श नहीं । रूप, रस, गंध स्पर्श से रहित जो है, उसकी मूर्ति क्या है? केवल एक स्वीकार कर लेना । उसमें जो कुछ दृष्टि में आया बस वह मूर्ति है, जिसकी ॐ ही मूर्ति है, जिस सहजतत्त्व को निरखकर फिर स्वीकार करें―हाँ यही मैं हूं, बस इस आकार में जो दृष्टिगत होता है वही इसकी मुद्रा है । वहाँ और कोई द्रव्य नहीं है, ऐसे मूर्तिरहित चैतन्यमात्र स्वतंत्र अंतस्तत्त्व का जो स्पर्शन करता है, उसके निकट रहता है, वह पुरुष समस्त विकल्परूप विपदाओं से दूर होता है, वह मैं शुद्ध चेतन हूँ ।
अंतस्तत्त्व का व्यक्त विलास होने पर विकल्पविपदाओं का विलय―देखिये―तकुवा टेढ़ा हो जिससे सूत काता जाता, उसको सीधा करे कोई, तो सीधा होने पर उस डेढ़ का क्या हुआ? कोई कहता है कि टेढ़ निकल गई, कोई कहता कि टेढ़ विलीन हो गई, कोई कहता कि टेढ़ नष्ट हो गई । टेढ़ कोई तकुवा से अलग न थी, उस समय टेढ़ तकुवा से अभिन्न थी । उस टेढ़ के नष्ट होने पर फिर रहा क्या ? और टेढ़ है नहीं, तब कहाँ गयी वह टेढ़? विलीन हो गयी । विलीन किसमें हुई? तकुवा में । तकुवा की ही वह अवस्था थी जो तकुवा में विलीन हो गई और अब व्यक्तरूप तो केवल एक सीधी अवस्था है । तो विलीन यहाँ ऐसे नहीं होते कि कुछ सत्ता अपनी रखता हो और उस पर फिर दूसरी चीज आ गयी क्योंकि अवस्था सत्ता नहीं रखा करती, तो जैसे तकुवा की डेढ़, विलीन हो गई और अब वह केवल सीधा हैं, इसी तरह इस आत्मा में ये विकल्प विपदायें विलीन हो गयीं । विलीन होने पर इन विकल्पों का कुछ भी अवशेष न रहा और वहाँ शुद्ध चिन्मात्र अनुभव होता है । मैं ऐसा शुद्ध चित्स्वरूप सहज परमात्मतत्त्व हूँ । इस अपने आपकी सुध नहीं रहती तब क्षोभ है, जब इस आत्मतत्त्व की सुध होती है, तब कहाँ है उसके कुटुंबी? कहीं कुटुंब नहीं, कहीं विभूति नहीं, कहीं पुत्र नहीं, कहीं इज्जत नहीं, कहीं परिचय नहीं । वह तो अपने शुद्ध चित्स्वरूप का अनुभव करता है । ऐसा मैं शुद्ध सहज परमात्मतत्त्व हूँ । जो अपने इस विशुद्ध स्वरूप की भावना करेगा वह देह कर्म सब बंधनों से मुक्त होकर ऐसा ही विशुद्ध बनता है ।