शब्द अर्थ संबंध
From जैनकोष
परीक्षामुख परिच्छेद 3/100,101
सहजयोग्यतासंकेतवशाद्धि शब्दादयो वस्तु प्रतिपत्तिहेतवः ॥100॥ यथा मेवदिय सन्ति ।।101।।
= शब्द और अर्थ में वाचक वाच्य शक्ति है। उसमें संकेत होने से अर्थात् इस शब्द का वाच्य यह अर्थ है ऐसा ज्ञान हो जाने से शब्द आदि से पदार्थों का ज्ञान होता है। जिस प्रकार मेरु आदि पदार्थ हैं अर्थात् मेरु शब्द के उच्चारण करने से ही जंबूद्वीप के मध्य में स्थित मेरुका ज्ञान हो जाता है। (इसी प्रकार अन्य पदार्थों को भी समझ लेना चाहिए।)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/33/144
शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थभेदेनाप्यवश्यं भवितव्यम्।
= यदि शब्दों में भेद है तो अर्थों में भेद अवश्य होना चाहिए।
(राजवार्तिक अध्याय 1/33/10/98/31)
राजवार्तिक अध्याय 1/6/5/34/18
शब्दभेदे ध्रुवोऽर्थभेद इति।
= शब्द का भेद होने पर अर्थ अर्थात् वाच्य पदार्थ का भेद ध्रुव है।
आप्त मीमांसा/मूल 27
संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्यादृते क्वचित् ॥27॥
= जो संज्ञावान पदार्थ प्रतिषेध्य कहिए निषेध करने योग्य वस्तु तिस बिना प्रतिषेध कहूँ नाहीं होय है।
राजवार्तिक अध्याय 1/6/5/34/18
में उद्धृत (यावन्मात्राः शब्दाः तावन्मात्राः परमार्थाः भवंति) जित्तियमित्ता सद्दा तित्तियमित्ता होंति परमत्था।
= जितने शब्द होते हैं उतने ही परम अर्थ हैं।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 252
कि बहुणा उत्तेण य जेत्तिय-मेत्ताणि संति णामाणि, तेत्तिय-मेत्ता अत्था संति य णियमेण परमत्था।
= अधिक कहने से क्या? जितने नाम हैं उतने ही नियम से परमार्थ रूप पदार्थ हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/13-14/$198-200/238/1
शब्दोऽर्थस्य निस्संबंधस्य कथ वाचक इति चेत्। प्रमाणमर्थस्य निस्संबंधस्य कथं ग्राहकमिति समानमेतत्। प्रमाणार्थयोर्जन्यजनकलक्षणः प्रतिबंधोऽस्तीति चेत्; न; वस्तुसामर्थ्यस्यांतः समुत्पत्तिविरोधात् ॥$198॥ प्रमाणार्थयोः स्वभावत एव ग्राह्यग्राहकमभावश्चेत्; तर्हि शब्दार्थयोः स्वभावत एव वाच्यवाचकभावः किमिति नेष्यते अविशेषात्। प्रमाणेन स्वभावतोऽर्थसंबद्धेन किमितींद्रियमालोको वा अपेक्ष्यत इति समानमेतत्। शब्दार्थसबंधः कृत्रिमत्वाद्वा पुरुषव्यापारमपेक्षते ॥$199॥...
अथ स्यात्, न शब्दो वस्तु धर्मः; तस्य ततो भेदात्। नाभेदः भिंनेंद्रियग्राह्यत्वात् भिन्नार्थक्रियाकारित्वात् भिन्नसाधनत्वात् उपायोपेयभावोपलंभाच्च। न विशेष्याद्भिन्नं विशेषणम्; अव्यवस्थापत्तेः। ततो न वाचकभेदाद्वाच्यभेद इति; न; प्रकाश्याद्भिन्नामेव प्रमाण-प्रदीप-सूर्य-मणींद्वादीनां प्रकाशकत्वोपलंभात्, सर्वथैकत्वे तदनुपलंभात् ततो भिन्नोऽपि शब्दोऽर्थप्रतिपादक इति प्रतिपत्तव्यम् ॥$200॥
धवला पुस्तक 9/4,1,45/179/3
अथ स्यान्न, नशब्दो...अव्यवस्थापत्ते; (ऊपर कषायपाहुड़ में भी यही शंका की गयी है) नैष दोषः, भिन्नानामपि वस्त्राभरणादीनां विशेषणत्वोपलंभात्।...कृतो योग्यता शब्दार्थानाम्। स्वपराभ्याम्। न चैकांतेनान्यत एव तदुत्पत्तिः, स्वती विवर्तमानानामर्थानां सहायकत्वेन वर्तमानबाह्यार्थोपलंभात्।
प्रश्न - शब्द व अर्थ में कोई संबंध न होते हुए भी वह अर्थ का वाचक कैसे हो सकता है?
उत्तर - प्रमाण का अर्थ के साथ कोई संबंध न होते हुए भी वह अर्थ का ग्राहक कैसे हो सकता है?
प्रश्न - प्रमाण व अर्थ में जन्यजनक लक्षण पाया जाता है।
उत्तर - नहीं, वस्तु की सामर्थ्य की अन्य से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है।
प्रश्न - प्रमाण व अर्थ में तो स्वभाव से ही ग्राह्यग्राहक संबंध है।
उत्तर - तो शब्द व अर्थ में भी स्वभाव से ही वाच्य-वाचक संबंध क्यों नहीं मान लेते?
प्रश्न - यदि इसमें स्वभाव से ही वाच्यवाचक भाव है तो वह पुरूषव्यापार की अपेक्षा क्यों करता है?
उत्तर - प्रमाण यदि स्वभाव से ही अर्थ के साथ संबद्ध है तो फिर वह इंद्रियव्यापार व आलोक (प्रकाश) की अपेक्षा क्यों करता है? इस प्रकार प्रमाण व शब्द दोनों में शंका व समाधान समान हैं। अतः प्रमाण की भाँति ही शब्द में भी अर्थ प्रतिपादन की शक्ति माननी चाहिए। अथवा, शब्द और पदार्थ का संबंध कृत्रिम है। अर्थात् पुरुष के द्वारा किया हुआ है, इसलिए वह पुरुष के व्यापार की अपेक्षा रखता है।
प्रश्न - शब्द वस्तु का धर्म नहीं है, क्योंकि उसका वस्तु से भेद है। उन दोनों में अभेद नहीं कहा जा सकता क्योंकि दोनों भिन्न इंद्रियों के विषय हैं, और वस्तु उपेय है। इन दोनों में विशेष्य विशेषण भाव की अपेक्षा भी एकत्व नहीं माना जा सकता, क्योंकि विशेष्य से भिन्न विशेषण नहीं होता है, कारण कि ऐसा मानने से अव्यवस्था की आपत्ति आती है।
(धवला पुस्तक 9/4,1,45/179/3)
पर यही शंका करते हुए शंकाकार ने उपरोक्त हेतुओँ के अतिरिक्त ये हेतु और भी उपस्थित किये हैं - दोनों भिन्न इंद्रियों के विषय हैं। वस्तु त्वगिंद्रिय से ग्राह्य है और शब्द त्वगिंद्रिय से ग्राह्य नहीं है। दूसरे, उन दोनों में अभेद मानने से `छुरा' और `मोदक' शब्दों का उच्चारण करने पर क्रम से मुख कटने तथा पूर्ण होने का प्रसंग आता है; अतः दोनों में सामानाधिकरण्य नहीं हो सकता।] (और भी देखें नय - 4.5) अतः शब्द वस्तु का धर्म न होने से उसके भेद से अर्थभेद नहीं हो सकता?
उत्तर - नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार प्रमाण, प्रदीप, सूर्य, मणि और चंद्रमा आदि पदार्थ घट पट आदि प्रकाश्यभूत पदार्थों से भिन्न रहकर ही उनके प्रकाशक देखे जाते हैं, तथा यदि उन्हें सर्वथा अभिन्न माना जाय तो उनके प्रकाश्य-प्रकाशक भाव नहीं बन सकता है; उसी प्रकार शब्द अर्थ से भिन्न होकर भी अर्थ का वाचक होता है, ऐसा समझना चाहिए। दूसरे, विशेष्य से अभिन्न भी वस्त्राभरणादिकों को विशेषणता पायी जाती है। (जैसे-घड़ीवाला या लाल पगड़ीवाला)
प्रश्न - शब्द व अर्थ में यह योग्यता कहाँ से आती है कि नियत शब्द नियत ही अर्थका प्रतिपादक हो?
उत्तर - स्व व पर से उनके यह योग्यता आती है। सर्वथा अन्य से ही उसकी उत्पत्ति हो, ऐसा नहीं है; क्योंकि, स्वयं वर्तने वाले पदार्थों की सहायता से वर्तते हुए बाह्य पदार्थ पाये जाते हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/13-14/$215-216/265-268
अथ स्यात् न पदवाक्यान्यर्थप्रतिपादिकानि; तेषामसत्त्वात। कुतस्तदसत्त्वम्। [अनुपलंभात् सोऽपि कुतः।] वर्णानां क्रमोत्पन्नानामनित्यानामेतेषां नामधेयाति (पाठ छूटा हुआ है) समुदायाभावात्। न च तत्समुदय (पाठ छूटा हुआ है) अनुपलंभात्। न च वर्णादर्थप्रतिपत्तिः; प्रतिवर्णमर्थप्रतिपत्तिप्रसंगात्। नित्यानित्योभयपक्षेषु संकेतग्रहणानुपपत्तेश्च न पदवाक्येभ्योऽर्थप्रतिपत्तिः। नासंकेतितः शब्दोऽर्थप्रतिपादकः अनुपलंभात्। ततो न शब्दार्थप्रतिपत्तिरिति सिद्धम् ॥$215॥ न च वर्ण-पद-वाक्यव्यतिरिक्तः नित्योऽक्रम अमूर्तो निरवयवः सर्वगतः अर्थप्रतिपत्तिनिमित्तं स्फोट इति; अनुपलंभात् ॥$216॥...न; बहिरंगशब्दात्मकनिमित्तं च (तेभ्यः) क्रमेणोत्पन्नवर्णप्रत्ययेभ्यः अक्रमस्थितिभ्यः समुत्पन्नपदवाक्याभ्यामर्थविषयप्रत्ययोत्पत्त्युपलंभात्। न च वर्णप्रत्ययानां क्रमोत्पन्नानां पदवाक्यप्रत्ययोत्पत्तिनिमित्तानामक्रमेण स्थितिर्विरुद्धा; उपलभ्यमानत्वात्।...न चानेकांते एकांतवाद इव संकेतग्रहणमनुपपन्नम्; सर्वव्यवहाराणा [मनेकांत एवं सुघटत्वात्। ततः] वाच्यवाचकभावो घटत इति स्थितम्।
प्रश्न - क्रम से उत्पन्न होने वाले अनित्य वर्णों का समुदाय असत् होने से पद और वाक्यों का ही जब अभाव है, तो वे अर्थप्रतिपादक कैसे हो सकते हैं? और केवल वर्णों से ही अर्थ का ज्ञान हो जाय ऐसा है नहीं, क्योंकि `घ' `ट' आदि प्रत्येक वर्ण से अर्थ के ज्ञान का प्रसंग आता है? सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य और सर्वथा उभय इन तीनों पक्षो में ही संकेत का ग्रहण नहीं बन सकता इसलिए पद और वाक्यों से अर्थ का ज्ञान नहीं हो सकता; क्योंकि संकेत रहित शब्द पदार्थ का प्रतिपादक होता हुआ नहीं देखा जाता? वर्ण, पद और वाक्य से भिन्न, नित्य, क्रमरहित, अमूर्त, निरवयव, सर्वगत `स्फोट' नाम के तत्त्व को पदार्थों की प्रतिपत्ति का कारण मानना भी ठीक नहीं; क्योंकि, उस प्रकार की कोई वस्तु उपलब्ध नहीं हो रही है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि, बाह्य शब्दात्मक निमित्तों से क्रमपूर्वक जो `घ' `ट' आदि वर्ण ज्ञान उत्पन्न होते हैं, और जो ज्ञान में अक्रम से स्थित रहते हैं, उनसे उत्पन्न होनेवाले पद और वाक्यों से अर्थ विषयक ज्ञान की उत्पत्ति देखी जाती है। पद और वाक्यों के ज्ञान की उत्पत्ति में कारणभूत तथा क्रम से उत्पन्न वर्ण विषयक ज्ञानों की अक्रम से स्थिति मानने में भी विरोध नहीं आता; क्योंकि, वह उपलब्ध होती है। तथा जिस प्रकार एकांतवाद में संकेत का ग्रहण नहीं बनता है, उसी प्रकार अनेकांत में भी न बनता हो, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि समस्त व्यवहार अनेकांतवाद में ही सुघटित होते हैं। (अर्थात् वर्ण व वर्णज्ञान कथंचित् भिन्न भी है और कथंचित् अभिन्न भी) अतः वाच्यवाचक भाव बनता है, यह सिद्ध होता है।
राजवार्तिक अध्याय 1/26/4/87/23
शब्दाश्च सर्वे संख्येया एव, द्रव्यपर्यायाः पुनः संख्येयाऽसंख्येयानंतभेदाः।
= सर्व शब्द तो संख्यात ही होते हैं। परंतु द्रव्यों की पर्यायों के संख्यात असंख्यात व अनंतभेद होते हैं।
राजवार्तिक अध्याय 4/42/13/252/22
यदा वक्ष्यमाणैः कालादिभिरस्तित्वादीनां धर्माणां भेदेन विवक्षा तदैकस्य शब्दस्यानेकार्थप्रत्यायनशक्त्याभावात् क्रमः। यदा तु तेषामेव धर्माणां कालदिभिरभेदेन वृत्तमात्मरूपमुच्यते तदैकेनापि शब्देन एकधर्मप्रत्यायनमुखेन तदात्मकत्वापन्नस्य अनेकाशेषरूपस्य प्रतिपादनसंभवात् यौगपद्यम्। तत्र यदा यौगपद्यं तदा सकलादेशः; स एव प्रमाणमित्युच्येते।...यदा तु क्रमः तदा विकलादेशः स एव नय इति व्यपदिश्यते।
= जब अस्तित्व आदि अनेक धर्म कालादि की अपेक्षा भिन्न-भिन्न विवक्षित होते हैं, उस समय एक शब्द में अनेक अर्थों के प्रतिपादन की शक्ति न होने से क्रम से प्रतिपादन होता है। इसे विकलादेश कहते हैं। परंतु जब उन्हीं अस्तित्वादि धर्मों की कालादिक की दृष्टि से अभेद विवक्षा होती है, तब एक भी शब्द के द्वारा एक धर्ममुखेन तादात्म्य रूप से एकत्व को प्राप्त सभी धर्मों का अखंड भावसे युगपत् कथन हो जाता है। यह सकलादेश कहलाता है। विकलादेश नय रूप है और सकलादेश प्रमाण रूप है।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 14/179/29
में उद्धृत “स्वाभाविकसामर्थ्यसमयाभ्यामर्थबोध निबंधनं शब्दः।”
= स्वाभाविक शक्ति तथा संकेत से अर्थ का ज्ञान कराने वाले को शब्द कहते हैं।
- कालकी अपेक्षा स्याद्वादमंजरी श्लोक 14/178/30
- शास्त्रोंकी अपेक्षा स्याद्वादमंजरी श्लोक 14/179/4
- क्षेत्र की अपेक्षा
कालापेक्षया पुनर्यथा जैनानां प्रायश्चित्तविधौ...प्राचीनकाले षड्गुरुशब्देन शतमशीत्यधिकमुपवासानामुच्यते स्म, सांप्रतकाले तु तद्विपरीते तेनैव षड्गुरुशब्देन उपवासत्रयमेव संकेत्यते जीतकल्पव्यवहारनुसारात्।
= जितकल्प व्यवहार के अनुसार प्रायश्चित्त विधि में प्राचीन समय में `षड्गुरु' शब्द का अर्थ एक सौ अस्सी उपवास किया जाता था, परंतु आजकल उसी `षड्गुरु' का अर्थ केवल तीन उपवास किया जाता है।
शास्त्रापेक्षया तु यथा पुराणेषु द्वादशीशब्देनैकादशी। त्रिपुरार्णवे च अलिशब्देन मदाराभिषिक्तं च मैथुनशब्देन मधुसर्पिषोर्ग्रहणम् इत्यादि।
= पुराणों में उपवास के नियमों का वर्णन करते समय `द्वादशी' का अर्थ एकादशी किया जाता हैं; शाक्त लोगों के ग्रंथो में `अलि' शब्द मदिरा और `मैथुन' शब्द शहद और घी के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 14/178/28
चौरशब्दोऽन्यत्र तस्करे रूढोऽपि दाक्षिणात्यानामोदने प्रसिद्धः। यथा च कुमारशब्दः पूर्वदेशे आश्विनमासे रूढः। एवं कर्कटीशब्दादयोऽपि तत्तद्देशापेक्षया योन्यादिवाचका ज्ञेयाः।
= `चौर' शब्द का साधारण अर्थ तस्कर होता है, परंतु दक्षिण देश में इस शब्द का अर्थ चावल होता है। `कुमार' शब्द का सामान्य अर्थ युवराज होने पर भी पूर्व देश में इसका अर्थ आश्विन मास किया जाता है। `कर्कटी' शब्दका अर्थ ककड़ी होनेपर भी कहीं-कहीं इसका अर्थ योनि किया जाता है।
सप्तभंगी तरंगिनी पृष्ठ 70/4
उक्तिश्चावाच्यतैकांतेनावाच्यमिति युज्यते। इति स्वामिसमंतभद्राचार्यवचनं कथं संघटते।...न तदर्थापरिज्ञानात्। अयं खलु तदर्थः, सत्त्वाद्येकैकधर्ममुखेन वाच्यमेव वस्तु युगपत्प्रधानभूतसत्त्वासत्त्वोभयधर्मावच्छिन्नत्वेनावाच्यम्।
प्रश्न - अवाच्याता का जो कथन है वह एकांत रूप से अकथनीय है. ऐसा मानने से `अवाच्यता युक्त न होगी', यह श्री समंतभद्राचार्य का कथन कैसे संगत होगा? उत्तर - ऐसी शंका भी नहीं की जा सकती, क्योंकि तुमने स्वामी समंतभद्राचार्यजी के वचनों को नहीं समझा। उस वचन का निश्चय रूप से अर्थ यह है कि सत्त्व आदि धर्मों में-से एक-एक धर्म के द्वारा जो पदार्थ वाच्य है अर्थात् कहने योग्य है, वही पदार्थ प्रधान भूत सत्त्व असत्त्व इस उभय धर्म सहित रूप से अवाच्य है।
राजवार्तिक अध्याय 2/7/5/11/2
रूढिशब्देषु हि क्रियोपात्तकाला व्युत्पत्त्यर्थैव न तंत्रम्। यथा गच्छतीति गौरिति।...
राजवार्तिक अध्याय 2/12/2/126/30
कथं तर्ह्यस्य निष्पत्तिः `त्रस्यंतीति त्रसाः' इति। व्युत्पत्तिमात्रमेव नार्थः प्राधान्येनाश्रीयते गोशब्दप्रवृत्तिवत्। ...एवंरूढिविशेषबललाभात् क्वचिदेव वर्तते।
= जितने रूढि शब्द हैं उनकी भूत भविष्यत् वर्तमान काल के आधीन जो भी क्रिया हैं वे केवल उन्हें सिद्ध करने के लिए हैं। उनसे जो अर्थ द्योतित होता है वह नहीं लिया जाता है।
प्रश्न - जो भयभीत होकर गति करे सो त्रस यह व्युत्पत्ति अर्थ ठीक नहीं हैं। (क्योंकि गर्भस्थ अंडस्थ आदि जीव त्रस होते हुए भी भयभीत होकर गमन नहीं करते।
उत्तर - `त्रस्यंतीति त्रसाः' यह केवल ”गच्छतीति गौः” की तरह व्युत्पत्ति मात्र है।
(राजवार्तिक अध्याय 2/13/1/127) (राजवार्तिक अध्याय 2/36/3/145)
देखें आगम - 4।