संयोजन
From जैनकोष
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 421,482,483,812
उग्गम उप्पादण एसणं च संजोजणं पमाणं च। गालधूमकारण अट्ठविहा पिंडसुद्धीहु ॥421॥ णवकोडीपरिसुद्धं असणं बादालदोसपरिहीणं। संजोजणायहीणं पमाणसहियं विहिसु दिण्णं ॥482॥ विगदिगाल विधूमं छक्कारणसंजुदं कमविसुद्धं। जत्तासाधणमत्तं चोद्दसमलवज्जिदं भंजे ॥483॥ उद्देसिय कोदयडं अण्णादं संकिदं अभिहडं च। सुत्तप्पडिकुट्टाणि य पडिसिद्धं तं विवज्जेंति ॥812॥
= उद्गम, उत्पादन, अशन, संयोजन, प्रमाण, अंगार, धूम कारण - इन आठ दोषों कर रहित जो भोजन लेना वह आठ प्रकार की पिंडशुद्धि कही है ॥421॥ ऐसे आहार को लेना चाहिए-जो नवकोटि अर्थात् मन, वचन, काय, कृत कारित अनुमोदना से शुद्ध हो, ब्यालीस दोषों कर रहित हो, मात्रा प्रमाण हो, संयोजन दोष से रहित हो, विधि से अर्थात् नवधा भक्ति दाता के सात गुणसहित क्रिया से दिया गया हो। अंगार दोष, धूमदोष, इन दोनों से रहित हो, छह कारणों से सहित हो, क्रम विशुद्ध हो, प्राणों के धारण के लिए हो, अथवा मोक्ष यात्रा के साधन के लिए हो, चौदह मलों से रहित हो, ऐसा भोजन साधु ग्रहण करें ॥482-483॥
आहार का एक दोष - देखें आहार - II.4.4।