सद्भाव स्थापना
From जैनकोष
श्लोकवार्तिक 2/1/5/54/263/17 तत्राध्यारोप्यमाणेन भावेंद्रादिना समाना प्रतिमा सद्भावस्थापना मुख्यदर्शिन: स्वयं तस्यास्तद्बुद्धिसंभवात् । कथंचित् सादृश्यसद्भावात् । मुख्याकारशून्या वस्तुमात्रा पुनरसद्भावस्थापना परोपदेशादेव तत्र सोऽयमिति सप्रत्ययात् । = भाव निक्षेप के द्वारा कहे गये अर्थात् वास्तविक पर्याय से परिणत इंद्र आदि के समान बनी हुई काष्ठ आदि की प्रतिमा में आरोपे हुए उन इंद्रादि की स्थापना करना सद्भावस्थापना है; क्योंकि, किसी अपेक्षा से इंद्र आदि का सादृश्य यहाँ विद्यमान है, तभी तो मुख्य पदार्थ को जीव की तिस प्रतिमा के अनुसार सादृश्य से स्वयं ‘यह वही है’ ऐसी बुद्धि हो जाती है। मुख्य आकारों से शून्य केवल वस्तु में ‘यह वही है’ ऐसी स्थापना कर लेना असद्भाव स्थापना है; क्योंकि मुख्य पदार्थ को देखने वाले भी जीव को दूसरों के उपदेश से ही ‘यह वही है’ ऐसा समीचीन ज्ञान होता है, परोपदेश के बिना नहीं।
अधिक जानकारी के लिये देखें निक्षेप - 4.3।