सम्यक मिथ्यात्व गुणस्थान
From जैनकोष
पंचसंग्रह प्राकृत/1/10,169
दहिगुडमिव वामिस्सं पिहुभावं णेव कारिदुं सक्कं। एवं मिस्सयभावो सम्मामिच्छो त्ति णायव्वो।10। सद्दहणासद्दहणं जस्स य जीवेसु होइ तच्चेसु। विरयाविरएण समो सम्मामिच्छो त्ति णायव्वो। 169।
= 1. जिस प्रकार अच्छी तरह मिला हुआ दही और गुड़, पृथक् पृथक् नहीं किया जा सकता इसी प्रकार सम्यक्त्व व मिथ्यात्व से मिश्रित भाव को सम्यग्मिथ्यात्व जानना चाहिए।10। ( धवला 1/1, 12/ गाथा 109/170); ( गोम्मटसार जीवकांड/22/47 ) 2. जिसके उदय से जीवों के तत्त्वों में श्रद्धान और अश्रद्धान युगपत् प्रगट हो है, उसे विरताविरत के समान सम्यग्मिथ्यात्व जानना चाहिए।169। ( गोम्मटसार जीवकांड/655/1102 )।
अधिक जानकारी के लिये देखें मिश्र_गुणस्थान 1.1
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