सहानवस्था
From जैनकोष
राजवार्तिक/4/42/18/261/20 [अनुपलंभसाध्यो हि विरोधः– (सप्तभंगीतरंगिनी/83/2)] –इह विरोधः कल्प्यमानः त्रिधा व्यवतिष्ठते–बध्यघातकभावेन वा सहानवस्थात्मना वा प्रतिबंध्यप्रतिबंधकरूपेण वा। तत्र बध्यघातकभावः अहिनकुलाग्न्युदकादिविषयः। स त्वेकस्मिन् काले विद्यमानयोः सति संयोगे भवति, संयोगस्यानेकाश्रयत्वात् द्वित्ववत्। नासंयुक्तमुदकमग्निं विध्यापयति सर्वत्राग्न्यभावप्रसंगात्। ततः सति संयोगे बलीयसोत्तरकालमितरद् बाध्यते।....... सहानवस्थनलक्षणो विरोधः......। स ह्ययुगपत्कालयोर्भवति यथा आम्रफले श्यामतापीततयोः पीततोत्पद्यमाना पूर्वकालभाविनीं श्यामतां निरुणद्धि।.... प्रतिबंध्यप्रतिबंधक.... विरोधः....। यथा सति फलवृंतसंयोगे प्रतिबंध के गौरवं पतनकर्म नारभते प्रतिबंधात्, तदभावे तु पतनकर्म दृश्यते ‘‘संयोगाभावे गुरुत्वात् पतनम् [वैशेषिक सूत्र/5/1/7] इति वचनात्। [सिति मणिरूपप्रति बंध के वह्निना दाहो न जायत इति मणिदाहयोः प्रतिबध्यप्रतिबंधकभावो युक्तः (सप्तभंगीतरंगिनी/88/9] । = ...... दूसरा सहानवस्थान विरोध एक वस्तु की क्रम से होने वाली दो पर्यायों में होता है। नयी पर्याय उत्पन्न होती है तो पूर्व पर्याय नष्ट हो जाती है, जैसे आम का हरा रूप नष्ट होता है और पीत रूप उत्पन्न होता है। .....।
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