सूत्रपाहुड गाथा 17
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि जो जिनसूत्र को जाननेवाले मुनि हैं, उनका स्वरूप फिर दृढ़ करने को कहते हैं -
वालग्गकोडि ेत्तं परिगहगहणं ण होइ साहूणं ।
भुंजेइ पाणिपत्ते दिण्णण्णं इक्कठाणम्मि ।।१७।
बालाग्रकोटिात्रं परिग्रहग्रहणं न भवति साधूनाम् ।
भुंजीत पाणिपात्रे दत्तमन्येन एकस्थाने ।।१७।।
बालाग्र के भी बराबर ना परीग्रह हो साधु के ।
अर अन्य द्वारा दत्त पाणीपात्र में भोजन करें ।।१७।।
अर्थ - बाल के अग्रभाग की कोटि अर्थात् अणी मात्र भी परिग्रह का ग्रहण साधु के नहीं होता है, यहाँ आशंका है कि यदि परिग्रह कुछ भी नहीं है तो आहार कैसे करते हैं ? इसका समाधान करते हैं - आहार करते हैं सो पाणिपात्र (करपात्र) अपने हाथ ही में भोजन करते हैं, वह भी अन्य का दिया हुआ प्रासुक अन्न मात्र लेते हैं, वह भी एक स्थान पर ही लेते हैं, बारबार नहीं लेते हैं और अन्य-अन्य स्थान में नहीं लेते हैं ।
भावार्थ - जो मुनि आहार ही पर का दिया हुआ प्रासुक योग्य अन्नमात्र निर्दोष एकबार दिन में अपने हाथ में लेते हैं तो अन्य परिग्रह किसलिए ग्रहण करे ? अर्थात् ग्रहण नहीं करे, जिनसूत्र में इसप्रकार मुनि कहे है ।।१७।।