सूत्रपाहुड गाथा 19
From जैनकोष
आगे इस ही का समर्थन करते हैं -
जस्स परिग्गहगहणं अप्पं बहुयं च हवइ लिंगस्स ।
सो गरहिउ जिणवयणे परिगहरहिओ णिरायारो ।।१९।।
यस्य परिग्रहग्रहणं अल्पं बहुकं च भवति लिंगस्य ।
स गर्ह्य: जिनवचने परिग्रहरहित: निरागार: ।।१९।।
थोड़ा-बहुत भी परिग्रह हो जिस श्रमण के पास में ।
वह निन्द्य है निर्ग्रन्थ होते जिनश्रमण आचार में ।।१९।।
अर्थ - जिसके मत में लिंग जो भेष उसके परिग्रह का अल्प तथा बहुत ग्रहण करना कहा है, वह मत तथा उसका श्रद्धावान पुरुष गर्हित है, निंदायोग्य है, क्योंकि जिनवचन में परिग्रह रहित ही निरागार है, निर्दोष मुनि है, इसप्रकार कहा है ।
भावार्थ - श्वेताम्बरादिक के कल्पित सूत्रों में भेष में अल्प बहुत परिग्रह का ग्रहण कहा है, वह सिद्धान्त तथा उसके श्रद्धानी निंद्य हैं । जिनवचन में परिग्रह रहित को ही निर्दोष मुनि कहा है ।।१९।।