सौत्रांतिक
From जैनकोष
- अंतर जगत् सत् है पर बाह्य जगत् नहीं । वह केवल चित्त में उत्पन्न होने वाले धर्मों पर निर्भर है ।
- इनके मत में बुझे हुए दीपकवत् ‘निर्वाण’ धर्मों के अनुत्पाद रूप है, यह असंस्कृत धर्म नहीं है, क्योंकि मार्ग के द्वारा उत्पन्न होता है ।
- इनके मत में उत्पत्ति से पूर्व व विनाश के पश्चात् शब्द की स्थिति नहीं रहती, अतः वह अनित्य है ।
- सत्तागत दो वस्तुओं में कार्यकारण भाव ये लोग नहीं मानते ।
- वर्तमान काल के अतिरिक्त भूत, भविष्यत् काल भी नहीं है ।
- इनके मत में परमाणु निरवयव होता है । अतः इनके संघटित होने पर भी यह पृथक् ही रहते हैं । केवल उनका परिमाण ही बढ़ जाता है ।
- प्रतिसंख्या व अप्रतिसंख्या धर्मों में विशेष नहीं मानते । प्रतिसंख्या निरोध में प्रज्ञा द्वारा रागादिक का निरोध हो जाने पर भविष्य में उसे कोई क्लेश न होगा । और अप्रतिसंख्या निरोध में क्लेशों का नाश हो जाने पर दुःख की आत्यंतिकी निवृत्ति हो जायेगी, जिससे कि वह भवचक्र से छूट जायेगा ।
अधिक जानकारी के लिये देखें बौद्धदर्शन-8।