हरिषेण
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
- साकेत नगरी के स्वामी वज्रसेन का पुत्र था। दीक्षा धारणकर आयु के अंत में महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ। ( महापुराण/74/232-234 ) यह वर्धमान भगवान् का पूर्व का सातवाँ भव है।-देखें महावीर।
- पूर्वभव सं.2 में अनंतनाथ भगवान् के तीर्थ में एक बड़ा राजा था। पूर्व भव में स्वर्ग में देव था। ( महापुराण/67/61 ) वर्तमान भव में दसवाँ चक्रवर्ती था। विशेष-देखें शलाकापुरुष
- काठियावाड़ के वर्धमानपुर नगरवासी पुन्नाटसंघी आचार्य। कृति वृहत्कथा कोष। समय-ग्रंथ रचनाकाल शक 853 (ई.931)। (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/3/65)।
- चित्तौड़ वासी अपभ्रंश कवि। कृति-धम्मपरिक्खा। समय-ग्रंथ रचनाकाल वि.1044। (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/4/120)।
पुराणकोष से
- असुरकुमार आदि भवनवासी देवों का ग्यारहवाँ इंद्र । वीरवर्द्धमान चरित्र 14.55
- मिथिला नगरी के राजा देवदत्त का पुत्र । नभसेन का यह पिता था । हरिवंशपुराण - 17.34
- हस्तशीर्षपूर नगर का राजा । इसने भरत-क्षेत्र में उज्जयिनी नगरी के राजा विजय की पुत्री विनयश्री को विवाहा था । महापुराण 71. 442-444, हरिवंशपुराण - 60.105-106
- धातकीखंड द्वीप के विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के नंदपुर नगर का राजा । इसकी रानी श्रीकांता तथा पुत्र हरिवाहन था । महापुराण 71.252, 254
- तीर्थंकर महावीर के पूर्वभव का जीव । महापुराण 76. 541
- जंबूद्वीप में कोशल देश के साकेत नगर के राजा वज्रसेन और रानी शीलवती का पुत्र । इसने श्रुतसागर मुनि से दीक्षा ले ली थी । आयु के अंत में मर कर यह महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ । महापुराण 74.230-234 वीरवर्द्धमान चरित्र 4.121-140, 5.2-24
- अवसर्पिणी काल के दुःषमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एवं दसवां चक्रवर्ती । यह तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के तीर्थ में हुआ था । भीमपुर नगर का राजा पद्नाभ और रानी ऐरा इसके माता-पिता थे । इसकी आयु दस हजार वर्ष तथा शरीर चौबीस धनुष ऊँचा था । इसके पिता को केवलज्ञान और आयुधशाला में चक्र, छत्र, खड्ग एव दंड ये चार रत्न तथा श्रीगृह में काकिणी, चर्म और मणि ये तीन रत्न एक साथ प्रकट हुए थे । चक्ररत्न की पूजा करके यह दिग्विजय के लिए उद्यत हुआ ही था कि उसी समय नगर में पुरोहित, गृहपति, स्थपति और सेनापति ये चार रत्न प्रकट हुए तथा विद्याधर इसे विजयार्ध से हाथी, घोड़ा और कन्या-रत्न ले आये थे । इसने सिंधुनद नगर में हाथी को वश में करके स्त्रियों को भयमुक्त किया था । इस उपलक्ष्य में राजा ने इसे अपनी सौ कन्याएँ दी थी । सूर्योदयपुर के राजा शक्रधनु की कन्या जयचंद्रा को इसने विवाहा था । शतमन्यु के आश्रम में पहुँचकर इसने नागमती की पुत्री को विवाहा था । विजय के पश्चात् अपने गृह नगर लौटकर इसने चिरकाल तक राज्य किया । पश्चात् चंद्र द्वारा ग्रसित राहु को देखकर इसे वैराग्य उत्पन्न हुआ और यह पुत्र महासेन को राज्य देकर संयमी हो गया । आयु के अंत में देह त्याग कर यह सर्वार्थसिद्धि में देव हुआ । महापुराण 67. 61-87, पद्मपुराण - 8.343-347, 370-371, 392-400 हरिवंशपुराण - 60.512, वीरवर्द्धमान चरित्र 18. 101-102, 110