GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 142 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, निर्जरा के स्वरूप का कथन है ।
संवर अर्थात् शुभाशुभ परिणाम का निरोध, और योग अर्थात् शुद्धोपयोग, उनसे (संवर और योग से) युक्त ऐसा जो (पुरुष), अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति-परिसंख्यान, रस-परित्याग, विविक्त-शय्यासन तथा कायक्लेशादि भेदों वाले बहिरंग तपों सहित और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ऐसे भेदोंवाले अंतरंग तपों सहित -- इस प्रकार बहुविध १तपों सहित प्रवर्तता है, वह (पुरुष) वास्तव में बहुत कर्मों की निर्जरा करता है । इसलिये यहाँ (इस गाथा में ऐसा कहा है कि), कर्म के वीर्य का (कर्म की शक्ति का) २शातन करने में समर्थ ऐसा जो बहिरंग और अंतरंग तपों द्वारा ३वृद्धि को प्राप्त शुद्धोपयोग सो भाव निर्जरा है और उसके प्रभाव से (-वृद्धि को प्राप्त शुद्धोपयोग के निमित्त से) नीरस हुए ऐसे उपार्जित कर्म-पुद्गलों का एकदेश ४संक्षय सो द्रव्य निर्जरा है ॥१४२॥
१जिस जीव को सहज-शुद्ध स्वरूप के प्रतपन-रूप निश्चय तप हो उस जीव के, हठ रहित वर्तते हुए अनशनादि सम्बन्धी भावों को तप कहा जाता है । उसमें वर्तता हुआ शुद्धिरूप अंश वह निश्चय तप है और शुभपने-रूप अंश को व्यवहार तप कहा जाता है । (मिथ्यादृष्टि को निश्चय-तप नहीं है इसलिये उसके अनशनादि सम्बन्धी शुभ भावों को व्यवहार-तप भी नहीं कहा जाता, क्योंकि जहाँ यथार्थ तप का सद्भाव ही नहीं है, वहाँ उन शुभ भावों में आरोप किसका किया जावे?)
२शातन करना= पतला करना, हीन करना, क्षीण करना, नष्ट करना ।
३वृद्धि को प्राप्त= बढा हुआ, उग्र हुआ। (संवर और शुद्धोपयोगवाले जीव को जब उग्र शुद्धोपयोग होता है तब बहुत कर्मों की निर्जरा होती है। शुद्धोपयोग की उग्रता करने की विधि शुद्धात्मद्रव्य के आलम्बन की उग्रता करना ही है । ऐसा करने वाले को, सहज दशा में हठ रहित जो अनशनादि सम्बन्धी भाव वर्तते हैं उनमें उग्र- शुद्धिरूप अंश होता है, जिससे बहुत कर्मों की निर्जरा होती है ।)
४संक्षय= सम्यक प्रकार से क्षय ।