GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 144 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, ध्यान के स्वरूप का कथन है ।
शुद्ध स्वरूप में अविचलित चैतन्य-परिणति सो वास्तव में ध्यान है । वह ध्यान प्रगट होने की विधि अब कही जाती है -- जब वास्तव में योगी, दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय का विपाक पुद्गल-कर्म होने से उस विपाक को (अपने से भिन्न ऐसे अचेतन) कर्मों में समेटकर, तदनुसार परिणति से उपयोग को व्यावृत्त करके (उस विपाक के अनुरूप परिणमन में से उपयोग का निवर्तन करके), मोही, रागी और द्वेषी न होने वाले ऐसे उस उपयोग को अत्यंत शुद्ध आत्मा में ही निष्कम्प रूप से लीन करता है, तब उस योगी को- जो कि अपने निष्क्रिय चैतन्य रूप स्वरूप में विश्रान्त है, वचन-मन-काया को नहीं १भाता और स्वकर्मों में १व्यापार नहीं करता उसे-सकल शुभाशुभ कर्म-रूप ईंधन को जलाने में समर्थ होने से अग्नि-समान ऐसा, २परम-पुरुषार्थ-सिद्धि के उपायभूत ध्यान प्रगट होता है ।
फ़िर कहा है कि-
((३अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इन्दतं
लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वृर्दि जंति ॥
अंतो णत्थि सुईणं कालो थोओ वयं च दुम्मेहा
तण्णवरि सिक्खियव्वं जं जरमरणं खयं कुणइ ॥ ))
इस समय भी त्रिरत्नशुद्ध जीव, इस काल भी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-रूप तीन रत्नों से शुद्ध ऐसे मुनि, आत्मा का ध्यान करके इन्द्रपना तथा लौकान्तिक-देवपना प्राप्त करते हैं और वहाँ से चयकर, मनुष्यभव प्राप्त करके, निर्वाण को प्राप्त करते हैं ।
श्रुतियों का अन्त नहीं है, शास्त्रों का पार नहीं है, काल अल्प है और हम ४दुर्मेध हैं, इसलिये वही केवल सीखने योग्य है कि जो जरा-मरण का क्षय करे ।
इस प्रकार निर्जरा-पदार्थ का व्याख्यान समाप्त हुआ ॥१४४॥
अब बन्ध पदार्थ का व्याख्यान है ।
१भाना = चिंतवन करना, ध्याना, अनुभव करना ।
२व्यापार = प्रवृत्ति (स्वरूप विश्रान्त योगी को अपने पूर्वोपार्जित कर्मों में प्रवर्तन नहीं है, क्योंकि वह मोहनीय-कर्म के विपाक को अपने से भिन्न-अचेतन-जानता है तथा उस कर्मविपाक को अनुरूप परिणमन से उसने उपयोग को विमिख किया है।)
३पुरुषार्थ = पुरुष का अर्थ, पुरुष का प्रयोजन, आत्मा का प्रयोजन, आत्म-प्रयोजन। (परम-पुरुषार्थ अर्थात् आत्मा का परम प्रयोजन मोक्ष है और वह मोक्ष ध्यान से सधता है, इसलिये परमपुरुषार्थ की, मोक्ष की, सिद्धि का उपाय ध्यान है।)
४दुर्मेध = अल्प-बुद्धि वाले, मन्द-बुद्धि, ठोट ।