GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 148-149 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, १द्रव्य-कर्म-मोक्ष के हेतु-भूत परम-संवर-रूप से भाव-मोक्ष के स्वरूप का कथन है ।
आस्रव का हेतु वास्तव में जीव का मोह-राग-द्वेष-रूप भाव है । ज्ञानी को उसका अभाव होता है । उसका अभाव होने पर आश्रव-भाव का अभाव होता है । आश्रव-भाव का अभाव होने पर कर्म का अभाव होता है । कर्म का अभाव होने पर सर्वज्ञता, सर्वदर्शिता और अव्याबाध, २इन्द्रिय-व्यापारातीत, अनन्त सुख होता है । यह ३जीवन्मुक्ति नाम का भावमोक्ष है । 'किस प्रकार' ? ऐसा प्रश्न किया जाय तो निम्नानुसार प्रकार स्पष्टीकरण है :-
यहाँ जो 'भाव' ४विवक्षित है वह कर्मावृत (कर्म से आवृत हुए) चैतन्य की क्रमानुसार प्रवर्तती ज्ञप्ति-क्रिया-रूप है । वह (क्रमानुसार प्रवर्तती ज्ञप्ति-क्रिया-रूप भाव) वास्तव में संसारी को अनादिकाल से मोहनीय-कर्म के उदय का अनुसरण करती हुई परिणति के कारण अशुद्ध है, द्रव्य-कर्मास्रव का हेतु है । परन्तु वह ( क्रमानुसार प्रवर्तती ज्ञप्ति-क्रिया-रूप भाव) ज्ञानी को मोह-राग-द्वेष-वाली परिणति-रूप से हानि को प्राप्त होता है इसलिये उसे आस्रव-भाव को निरोध होता है । इसलिये जिसे आश्रव-भाव का निरोध हुआ है ऐसे उस ज्ञानी को मोह के क्षय द्वारा अत्यंत निर्विकारपना होने से, जिसे अनादि-काल से अनन्त चैतन्य और (अनन्त) वीर्य मुंद गया है, ऐसा वह ज्ञानी (क्षीण-मोह गुणस्थान में) शुद्ध ज्ञप्ति-क्रिया-रूप से अंतर्मुहूर्त व्यतीत करके युगपद् ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का क्षय होने से कथंचित ५कूटस्थ ज्ञान को प्राप्त करता है और इस प्रकार उसे ज्ञप्ति-क्रिया के रूप में क्रम-प्रवृत्ति का अभाव होने से भाव-कर्म का विनाश होता है ।
इसलिये कर्म का अभाव होने पर वह वास्तव में भगवान सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा इन्द्रिय-व्यापारातीत, अव्याबाध-अनंत-सुख वाला सदैव रहता है ।
इस प्रकार यह (जो यहाँ कहा है वह), ६भाव-कर्म मोक्ष का ७प्रकार तथा द्रव्य-कर्म मोक्ष का हेतु-भूत परम संवर का प्रकार है ॥१४८-१४९॥
१द्रव्यकर्ममोक्ष = द्रव्यकर्म का सर्वथा छूट जाना, द्रव्यमोक्ष (यहाँ भाव-मोक्ष का स्वरूप द्रव्य-मोक्ष के निमित्त-भूत परम-संवर-रूप से दर्शाया है।)
२इन्द्रिय-व्यापारातीत = इन्द्रिय व्यापार रहित ।
३जीवन्मुक्ति = जीवित रहते हुए मुक्ति, देह होने पर भी मुक्ति ।
४विवक्षित = कथन करना है ।
५कूटस्थ = सर्वकाल एक रूप रहने वाला, अचल। (ज्ञानावरणादि घातिकर्मों का नाश होने पर ज्ञान कहीं सर्वथा अपरिणामी नहीं हो जाता, परन्तु वह अन्य-अन्य ज्ञेयों को जानने रूप परिवर्तित नहीं होता- सर्वदा तीनों काल के समस्त ज्ञेयों को जानता रहता है, इसलिये उसे कथंचित कूटस्थ कहा है।)
६भावकर्म मोक्ष=भावकर्म का सर्वथा छूट जाना, भावमोक्ष । (ज्ञप्ति-क्रिया में क्रम-प्रवृत्ति का अभाव होना वह भाव मोक्ष है अथवा सर्वज्ञ, सर्वदर्शीपने की और अनंतानान्दमयपने की प्रगटता वह भाव मोक्ष है ।)
७प्रकार = स्वरुप, रीत ।