GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 160 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, आत्माके चारित्र-ज्ञान-दर्शनपने का प्रकाशन है (अर्थात् आत्मा ही चारित्र, ज्ञान और दर्शन है ऐसा यहाँ समझाया है) ।
जो (आत्मा) वास्तव में आत्मा को- जो कि आत्ममय होने से अनन्यमय है उसे- आत्मा से आचरता है अर्थात् १स्वभावनियत अस्तित्व द्वारा अनुवर्तता है (स्वभाव-नियत अस्तित्त्व-रूप से परिणमित होकर अनुसरता है), (अनन्य-मय आत्मा को ही) आत्मा से जानता है अर्थात् स्व-पर-प्रकाशक-रूप से चेतता है, (अनन्य-मय आत्मा को ही) आत्मा से देखता है अर्थात् यथा-तथारूप से अवलोकता है, वह आत्मा ही वास्तव में चारित्र है, ज्ञान है, दर्शन है ऐसा २कर्ता-कर्म-करण के अभेद के कारण निश्चित है । इससे (ऐसा निश्चित हुआ कि) चारित्र-ज्ञान-दर्शनरूप होने के कारण आत्मा को जीव-स्वभाव-नियत चारित्र जिसका लक्षण है ऐसा निश्चय-मोक्ष-मार्गपना अत्यन्त घटित होता है (अर्थात् आत्मा ही चारित्र-ज्ञान-दर्शन होने के कारण आत्मा ही ज्ञान-दर्शन-रूप जीव-स्वभाव में दृढरूप से स्थित चारित्र जिसका स्वरूप है ऐसा निश्चय-मोक्ष-मार्ग है) ॥१६०॥
१स्वभावनियत = स्वभाव में अवस्थित; (ज्ञानदर्शनरूप) स्वभाव में दृढरूप से स्थित । ('स्वभावनियत अस्तित्व' की विशेष स्पष्टता के लिए १४४ वीं गाथा की टीका देखो ।)
२जब आत्मा आत्मा को आत्मा से आचरता है-जानता हैं-देखता है, तब कर्ता भी आत्मा, कर्म भी आत्मा और करण भी आत्मा है; इस प्रकार यहाँ कर्ता-कर्म-करण की अभिन्नता है ।