GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 20 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यहाँ, सिद्ध को अत्यन्त असत्-उत्पाद का निषेध किया है । (अर्थात सिद्धत्व होने से सर्वथा असत् का उत्पाद नहीं होता -- ऐसा कहा है) ।
जिस प्रकार कुछ समय तक अन्वय-रूप से (साथ-साथ) रहने वाली, नाम-कर्म-विशेष के उदय से उत्पन्न होनेवाली ज देवादि-पर्यायें उनमें से जीव को एक पर्याय स्व-कारण की निवृत्ति होने पर निवृत्त हो तथा अन्य कोई अभूत-पूर्व पर्याय ही उत्पन्न हो, वहाँ असत् की उत्पत्ति नहीं है; उसी प्रकार दीर्घ-काल तक अन्वय-रूप से रहने वाली ज्ञानावरणादि कर्म-सामान्य के उदय से उत्पन्न होनेवाली सन्सारित्व-पर्याय भव्य को स्व-कारण की निवृत्ति होने पर निवृत्त हो और अभूत-पूर्व (पूर्व-काल में नहीं हुई ऐसी) सिद्धत्व-पर्याय उत्पन्न हो, वहाँ असत् की उत्पत्ति नहीं है ।
पुनश्च (विशेष समझाया जाता है ।) :
जिस प्रकार जिसका विचित्र चित्रों से चित्र-विचित्र नीचे का अर्ध-भाग कुछ ढँका हुआ और कुछ बिन ढँका हो तथा सुविशुद्ध (अचित्रित) ऊपर का अर्ध भाग मात्र ढँका हुआ ही हो ऐसे बहुत लंबे बाँस पर दृष्टी डालने से वह दृष्टी सर्वत्र विचित्र चित्रों से हुए चित्र-विचित्र-पने की व्याप्ति का निर्णय करती हुई 'वह बाँस सर्वथा अविशुद्ध है (अर्थात सम्पूर्ण रंग-बिरंगा है)' ऐसा अनुमान करती है; उसीप्रकार जिसका ज्ञानावरणादि कर्मों से हुआ चित्र-विचित्रता-युक्त (विविध विभाव-पर्याय-वाला) बहुत बड़ा नीचे का भाग कुछ ढँका हुआ और कुछ बिन ढँका है तथा सुविशुद्ध (सिद्ध-पर्याय-वाला) बहुत बड़ा ऊपर का भाग मात्र ढँका हुआ ही है ऐसे किसी जीव-द्रव्य में बुद्धि लगाने से वह बुद्धि सर्वत्र ज्ञानावरणादि कर्म से हुए विचित्र-पने की व्याप्ति का निर्णय करती हुई 'वह जीव सर्वत्र अविशुद्ध है (अर्थात सम्पूर्ण संसार-पर्याय वाला है)' ऐसा अनुमान करती है । पुनश्च जिस प्रकार उस बाँस में व्याप्ति-ज्ञानाभास का कारण (नीचे के खुले भाग में) विचित्र चित्रों से हुए चित्र-विचित्र-पने का अन्वय (सन्तति / प्रवाह) है, उसी प्रकार उस जीव-द्रव्य में व्याप्ति-ज्ञानाभास का कारण (नीचे के खुले भाग में) ज्ञानावरणादि कर्म से हुए चित्र-विचित्र-पने का अन्वय है । और जिस प्रकार बाँस में (ऊपर के भाग में) सुविशुद्ध-पना है क्योंकि (वहाँ) विचित्र चित्रों से हुए चित्र-विचित्र-पने के अन्वय का अभाव है, उसी प्रकार उस जीव-द्रव्य में (ऊपर के भाग में) सिद्ध-पना है क्योंकि (वहाँ) ज्ञानावरणादि कर्म से हुए चित्र-विचित्र-पने के अन्वय का अभाव है -- की जो अभाव आप्त-आगम के ज्ञान से सम्यक अनुमान-ज्ञान से और अतीन्द्रिय ज्ञान से ज्ञात होता है ॥२०॥
*पर्व = एक गाँठ से दूसरी गाँठ तक का भाग; पोर