GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 41 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, दर्शनोपयोग के भेदों के नाम और स्वरूप का कथन है ।
- चक्षु-दर्शन,
- अचक्षु-दर्शन,
- अवधि-दर्शन,
- केवलदर्शन
(अब उनके स्वरूप का कथन किया जाता है :- ) आत्मा वास्तव में अनंत, सर्व आत्म-प्रदेशों में व्यापक, विशुद्ध दर्शन-सामान्य-स्वरूप है । वह (आत्मा) वास्तव में अनादि दर्शनावरण-कर्म से आच्छादित प्रदेशोंवाला वर्तता हुआ,
- उस प्रकार (चक्षु-दर्शन) के आवरण के क्षयोपशम से और चक्षु-इन्द्रिय के अवलम्बन से मूर्त द्रव्य का विकल-रूप से सामान्यत: अवबोधन करता है वह चक्षु-दर्शन है,
- उस प्रकार के आवरण के क्षयोपशम से तथा चक्षु के अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों और मन के अवलम्बन से मूर्त-अमूर्त द्रव्य को विकल-रूप से सामान्यत: अवबोधन करता है वह अचक्षु-दर्शन है,
- उस प्रकार के आवरण के क्षयोपशम से ही मूर्त-द्रव्य को विकल-रूप से सामान्यत: अवबोधन करता है, वह अवधि-दर्शन है,
- समस्त आवरण के अत्यन्त क्षय से, केवल ही (आत्मा अकेला ही), मूर्त-अमूर्त द्रव्य को सकल-रूप से सामान्यत: अवबोधन करता है वह स्वाभाविक केवल-दर्शन है