GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 45 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यहाँ व्यपदेश आदि एकान्त से द्रव्य-गुणों के अन्यपने का कारण होने का खण्डन किया है ।
- जिस प्रकार 'देवदत्त की गाय' इस प्रकार अन्यपने में षष्ठी-व्यपदेश (छठवीं विभक्ति का कथन) होता है, उसी प्रकार 'वृक्ष की शाखा', 'द्रव्य के गुण' ऐसे अनन्यपने में भी (षष्ठी-व्यपदेश) होता है ।
- जिस प्रकार 'देवदत्त फल को अंकुश द्वारा धनदत्त के लिए वृक्ष पर से बगीचे में तोड़ता है' ऐसे अन्यपने में कारक-व्यपदेश होता है, उसी प्रकार 'मिट्टी स्वयं घाट-भाव को (घडा-रूप परिणाम को) अपने द्वारा अपने लिए अपने में से अपने में करती है', 'आत्मा आत्म को आत्मा द्वारा आत्मा के लिए आत्मा में से आत्मा में जानता है' ऐसे अनन्यपने में भी (कारक-व्यपदेश) होता है ।
- जिस प्रकार 'ऊँचे देवदत्त की ऊँची गाय' ऐसा अन्यपने में संस्थान होता है, उसी प्रकार 'विशाल वृक्ष का विशाल शाखा-समुदाय', 'मूर्त द्रव्य के मूर्त गुण' ऐसे अनन्यपने में भी (संस्थान) होता है ।
- जिस प्रकार 'एक देवदत्त की दस गायें', ऐसे अन्यपने में संख्या होती है, उसी प्रकार 'एक वृक्ष की दस शाखाएं', 'एक द्रव्य के अनन्त गुण' ऐसे अनन्यपने में भी (संख्या) होती है ।
- जिस प्रकार 'बाड़े में गायें' ऐसे अन्यपने में विषय (आधार) होता है, उसी प्रकार 'वृक्ष में शाखायें', 'द्रव्य में गुण' एसे अनन्यपने में भी (विषय) होता है ।