GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 54 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
जीव को सत् भाव के उच्छेद और असत् भाव के उत्पाद में निमित्त-भूत उपाधि का यह प्रतिपादन है ।
जिस प्रकार समुद्र-रूप से असत् के उत्पाद और सत् के उच्छेद का अनुभव न करने-वाले ऐसे समुद्र को चारों दिशाओं में से क्रमश: बहती हुई हवाएं कल्लोलों-सम्बन्धी असत् का उत्पाद और सत् का उच्छेद करती है (अविद्यमान तरंग के उत्पाद में और विद्यमान तरंग के नाश में निमित्त बनती है), उसी प्रकार जीव-रूप से सत् के उच्छेद और असत् के उत्पाद अनुभव न करने-वाले ऐसे जीव को क्रमश: उदय को प्राप्त होने वाली नारक-तिर्यंच-मनुष्य-देव नाम की (नाम-कर्म की) प्रकृतियाँ (भावों-सम्बन्धी, पर्यायों-सम्बन्धी) सत् का उच्छेद तथा असत् का उत्पाद करती हैं (विद्यमान पर्याय के नाश में और अविद्यमान पर्याय के उत्पाद में निमित्त बनती हैं) ॥५४॥