GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 57 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यहाँ, (औदयिकादी भावों के) निमित्त-मात्र रूप से द्रव्य-कर्मों को औदयिकादि भावों का कर्तापना कहा है ।
(एक प्रकार से व्याख्या करने पर --) कर्म के बिना जीव को उदय-उपशम तथा क्षय-क्षयोपशम नहीं होते (द्रव्य-कर्म के बिना जीव को औदयिकादि चार भाव नहीं होते ); इसलिए क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदायिक या औपशमिक भाव कर्म-कृत सम्मत करना । पारिणामिक भाव तो अनादि-अनन्त, निरुपाधि, स्वाभाविक ही है । (औदयिक और क्षायोपशमिक भाव कर्म के बिना नहीं होते इसलिए कर्म-कृत कहे जा सकते हैं -- यह बात तो स्पष्ट समझ में आ सकती है; क्षायिक और औपशामिक भावों के सम्बन्ध में निम्नोक्तानुसार स्पष्टता की जाती है;) क्षायिक भाव, यद्यपि स्वभाव की व्यक्ति-रूप (प्रकटता-रूप) होने से अनन्त (अंत-रहित) है तथापि, कर्म-क्षय द्वारा उत्पन्न होने के कारण सादि है इसलिए कर्म-कृत ही कहा गया है । औपशमिक भाव कर्म के उपशम से उत्पन्न होने के कारण और अनुपशम से नष्ट होने के कारण कर्म-कृत ही है । (इस प्रकार औदयिकादि चार भावों को कर्म-कृत सम्मत करना ।)
अथवा (दूसरे प्रकार से व्याख्या करने पर) -- उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम स्वरूप चार (अवस्थाएं) द्रव्य-कर्म की अवस्थाएं हैं, परिणाम-स्वरूप एक अवस्था-वाले जीव की नहीं है (अर्थात् उदय आदि अवस्थाएं द्रव्य-कर्म की हैं, 'परिणाम' जिसका स्वरूप है ऐसी एक अवस्था-रूप से अवस्थित जीव की, पारिणामिक भाव-रूप जीव की, वे चार अवस्थाएं नहीं हैं); इसलिए उदयादि द्वारा उत्पन्न होने-वाले आत्मा के भावों को निमित्त-मात्र-भूत ऐसे उस प्रकार की अवस्थाओं-रूप (द्रव्य-कर्म) स्वयं परिणमित होने के कारण द्रव्य-कर्म भी व्यवहार-नय से आत्मा के भावों के कर्तृत्व को प्राप्त होता है ॥५७॥
१निरुपाधि = उपाधि-रहित; औपाधिक न हो ऐसा । (जीव का पारिणामिक भाव सर्व कर्मोपाधि से निरपेक्ष होने के कारण निरुपाधि है)