GP:प्रवचनसार - गाथा 102 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[समवेदं खलु दव्वं] स्पष्टरूप से एकीभूत - अभिन्न है । अभिन्न कौन है? आत्म-द्रव्य अभिन्न है । आत्मद्रव्य किनके साथ (किनसे) अभिन्न है? [संभवठिदिणाससण्णिदट्ठेहिं] सम्यक्त्व, ज्ञान पूर्वक निश्चल निर्विकर निजात्मानुभूतिलक्षण वीतराग चारित्र पर्यायरूप से उत्पाद, उसीप्रकार रागादि परद्रव्यों के साथ एकत्व परिणतिरूप चारित्रपर्याय से नाश और उन दोनों के आधारभूत आत्मद्रव्यत्व की अवस्थितिरूप पर्याय से स्थिति- धौव्य- इसप्रकार कहे गये लक्षण और नाम वाले उत्पाद-व्यय-धौव्य के साथ आत्मद्रव्य अभिन्न है । तो क्या बौद्धमत के समान भिन्न-भिन्न समय में तीन होते होगें? (परन्तु ऐसा नहीं है) । [एक्कम्मि चेव समये] अंगुलि द्रव्य की वक्र (टेढी) पर्याय के समान संसारी जीव की मरण समय में ऋजुगति के समान, क्षीणकषाय (१२ वें गुणस्थान) के अन्तिम समय में केवलज्ञान की उत्पत्ति के समान और अयोगी (१४ वें गुणस्थान) के अन्तिम समय में मोक्ष के समान एक समय में ही उत्पादादि तीनों आत्मद्रव्य में होते हैं । [तम्हा दव्वं खु तत्तिदयं] क्योंकि पूर्वोक्त प्रकार से एक समय में तीनों भंगरूप से परिणमित होता है; इसलिये संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा भेद होने पर भी प्रदेशों का अभेद होने से तीनों ही स्पष्ट रूप से द्रव्य हैं ।
जैसे यह तीन भंग चारित्र और अचारित्र दो पर्यायों में अभेदरूप से दिखाये हैं उसीप्रकर सभी द्रव्यों में जान लेना चाहिये - ऐसा अर्थ है ॥११२॥