GP:प्रवचनसार - गाथा 109 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
द्रव्य स्वभाव में नित्य अवस्थित होने से सत् है,—ऐसा पहले (९९वीं गाथा में) प्रतिपादित किया गया है; और (वहाँ) द्रव्य का स्वभाव परिणाम कहा गया है । यहाँ यह सिद्ध किया जा रहा है कि जो द्रव्य का स्वभावभूत परिणाम है वही ‘सत्’ से अविशिष्ट (अस्तित्व से अभिन्न) ऐसा गुण है ।
जो द्रव्य के स्वरूप का वृत्तिभूत ऐसा जो अस्तित्व द्रव्यप्रधान कथन के द्वारा ‘सत्’ शब्द से कहा जाता है उससे अविशिष्ट (उस अस्तित्व से अनन्य) गुणभूत ही द्रव्यस्वभावभूत परिणाम है; क्योंकि द्रव्य की वृत्ति (अस्तित्व) तीन प्रकार के समय को (भूत, भविष्यत, वर्तमान काल को) स्पर्शित करती है, इसलिये (वह वृत्ति—अस्तित्व) प्रतिक्षण उस-उस स्वभावरूप परिणमित होती है ।
(इसलिये) प्रथम तो द्रव्य का स्वभावभूत परिणाम है; और वह (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक परिणाम) अस्तित्वभूत ऐसी द्रव्य की वृत्तिस्वरूप होने से, ‘सत्’ से अविशिष्ट, द्रव्यविधायक (द्रव्य का रचयिता) गुण ही है । इस प्रकार सत्ता और द्रव्य का गुणगुणीपना सिद्ध होता है ॥१०९॥