GP:प्रवचनसार - गाथा 109 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[जो खलु दव्वसहावो परिणामो] - जो वास्तव में द्रव्य का स्वभावभूत परिणाम-पंचेन्द्रिय विषयों के भोगरूप मन की क्रिया से उत्पन्न सम्पूर्ण मनोरथरूपी विकल्पसमूह का अभाव होने पर ज्ञानानन्द एक स्वभाव की अनुभूतिरूप निज में स्थिरतामय जो परिणाम - उसका उत्पाद पहले कहे हुये विकल्पसमूहों का अभावरूप व्यय और उन दोनों का आधारभूत जीवत्वरूप धौव्य- इसप्रकार कहे गये लक्षणवाले उत्पाद-व्यय-धौव्य स्वरूप स्वभावभूत जो वह जीवद्रव्य का परिणाम है, [सो गुणो] - वह गुण है । वह परिणाम कैसा होता हुआ गुण है? [सदविसिट्ठो] - वे उत्पादादि तीनों एक अस्तित्व से अभिन्न- एक अस्तित्वरूप रहते हैं । वे अस्तित्व के साथ अभिन्न कैसे होते हैं? यदि ऐसा प्रश्न हो तो (उत्तर देते है) 'सत् उत्पाद-व्यय-धौव्यस्वरूप है' - ऐसा वचन होने से वे सब अस्तित्व से अभिन्न हैं । ऐसा होने पर सत्ता ही गुण है - यह अर्थ है ।
इसप्रकार गुण का कथन हुआ ।
[सदवट्ठिदं सहावे दव्वं ति] - स्वभाव में स्थित सत् द्रव्य है, द्रव्य अर्थात् परमात्मद्रव्य है । सत् द्रव्य कैसे है? अभेदनय से सत् द्रव्य है । कैसा सत् द्रव्य है? अच्छी तरह से स्थित सत् द्रव्य है । कहाँ स्थित सत् द्रव्य है? उत्पाद-व्यय-धौव्य स्वरूप स्वभाव में स्थित सत् द्रव्य है । [जिणोवदेसोयं] - यह जिनोपदेश है । "सदवट्ठिदं सहावे दव्वं दव्वस्स जो हु परिणामो" - स्वभाव में अवस्थित द्रव्य सत् है, वास्तव में द्रव्य का जो परिणमन है-----इत्यादि पहले (प्रवचनसार, गाथा १०९) गाथा में जो कहा था, वही यह व्याख्यान है; मात्र गुण का कथन अधिक है- यह तात्पर्य है ।
जैसे यह जीव द्रव्य में गुण्-गुणी का व्याख्यान किया है, उसी प्रकार सभी द्रव्यों में जानना चाहिये ॥११९॥