GP:प्रवचनसार - गाथा 112 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
प्रथम तो द्रव्य द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति को कभी भी न छोड़ता हुआ सत् (विद्यमान) ही है । और द्रव्य के जो पर्यायभूत व्यतिरेकव्यक्ति का उत्पाद होता है उसमें भी द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति का अच्युतपना होने से द्रव्य अनन्य ही है, (अर्थात् उस उत्पाद में भी अन्वयशक्ति तो अपतित- अविनष्ट-निश्चल होने से द्रव्य वह का वही है, अन्य नहीं ।) इसलिये अनन्यपने के द्वारा द्रव्य का सत्-उत्पाद निश्चित होता है, (अर्थात् उपरोक्त कथनानुसार द्रव्य का द्रव्यापेक्षा से अनन्यपना होने से, उसके सत्-उत्पाद है,—ऐसा अनन्यपने द्वारा सिद्ध होता है ।)
इसी बात को (उदाहरण से) स्पष्ट किया जाता है :—
जीव द्रव्य होने से और द्रव्य पर्यायों में वर्तने से जीव नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व में से किसी एक पर्याय में अवश्यमेव (परिणमित) होगा । परन्तु वह जीव उस पर्यायरूप होकर क्या द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति को छोड़ता है ? नहीं छोड़ता । यदि नहीं छोड़ता तो वह अन्य कैसे हो सकता है कि जिससे त्रिकोटि सत्ता (तीन प्रकार की सत्ता, त्रैकालिक अस्तित्व) जिसके प्रगट है ऐसा वह (जीव), वही न हो? ॥११२॥