GP:प्रवचनसार - गाथा 113 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[मणुवो ण हवदि देवो] आकुलता को उत्पन्न करने वाली मनुष्य, देव आदि विभाव-पर्यायों से विलक्षण अनाकुलतारूप स्वभाव-परिणति लक्षण परमात्मद्रव्य, यद्यपि निश्चय से मनुष्यपर्याय व देवपर्याय में समान है, तो भी मनुष्य, देव नहीं है । मनुष्य, देव क्यों नहीं है? देवपर्याय के समय मनुष्यपर्याय की प्राप्ति नहीं होने के कारण मनुष्य, देव नहीं है । [देवो वा माणुसो वा सिद्धो वा] अथवा देव, मनुष्य नहीं है, अथवा अपने आत्मा की पूर्ण प्राप्तिरूप सिद्धपर्याय नहीं है । ये सब पर्यायें एक रूप क्यों नहीं है? जैसे सुवर्ण द्रव्य में कुण्डल आदि पर्यायों का पृथक्-पृथक् समय होने से (किसी विशिष्ट सुवर्ण की) एक समय में सभी पर्यायें नहीं हो सकती, उसीप्रकार मनुष्यादि सभी पर्यायों का पृथक्-पृथक् समय होने से, वे सब एक-दूसरे रूप नहीं हैं । [एवं अहोज्जमाणो] इसप्रकार एक-दूसरे रूप नहीं होते हुए [अणण्णभावं कधं लहदि] अनन्यभाव-अभिन्नता-एकता को कैसे प्राप्त हो सकती हैं? कैसे भी नही अर्थात् वे एक नहीं हो सकतीं हैं ।
इससे इतना सिद्ध हुआ कि असद्भावनिबद्धोत्पाद-असदुत्पाद पूर्वपर्याय से भिन्न होता है ॥१२३॥