GP:प्रवचनसार - गाथा 115 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
द्रव्य
- स्वरूपापेक्षा से १ स्यात् अस्ति;
- पररूप की अपेक्षा से स्यात् नास्ति;
- स्वरूप-पररूप की युगपत् अपेक्षा से स्यात् २अवक्तव्य;
- स्वरूप-पररूप के क्रम की अपेक्षा से स्यात् अस्ति-नास्ति;
- स्वरूप की और स्वरूप-पररूप की युगपत् अपेक्षा से स्यात् अस्ति-अवक्तव्य;
- पररूप की और स्वरूप-पररूप की युगपत् अपेक्षा से स्यात् नास्ति अवक्तव्य; और
- स्वरूप की, पररूप की तथा स्वरूप-पररूप की युगपत् अपेक्षा से स्यात् अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य है ।
द्रव्य का कथन करने में,
- जो स्वरूप से 'सत्' है;
- जो पररूप से 'असत्' है;
- जिसका स्वरूप और पररूप से युगपत् कथन अशक्य है;
- जो स्वरूप से और पररूप से क्रमश: 'सत् और असत्' है;
- जो स्वरूप से, और स्वरूप-पररूप से युगपत् 'सत् और अवक्तव्य' है;
- जो पररूप से, और स्वरूप-पररूप से युगपत् 'असत् और अवक्तव्य' है; तथा
- जो स्वरूप से पररूप और स्वरूप-पररूप से युगपत् 'सत्, असत् और अवक्तव्य' है
१स्यात् = कथंचित्; किसीप्रकार; किसी अपेक्षा से । (प्रत्येक द्रव्य स्व-चतुष्टय की अपेक्षा से- स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावकी अपेक्षा से-' अस्ति ' है । शुद्ध जीव का स्व-चतुष्टय इस प्रकार है :- शुद्ध गुण-पर्यायों का आधारभूत शुद्धात्म-द्रव्य वह द्रव्य है; लोकाकाश-प्रमाण शुद्ध असंख्य-प्रदेश वह क्षेत्र है, शुद्ध पर्याय-रूप से परिणत वर्तमान समय वह काल है, और शुद्ध चैतन्य वह भाव है) ।
२अवक्तव्य = जो कहा न जा सके । (एक ही साथ स्वरूप तथा पररूप की अपेक्षा से द्रव्य कथनमें नहीं आ सकता, इसलिये अवक्तव्य है) ।