GP:प्रवचनसार - गाथा 116 - अर्थ
From जैनकोष
[एषः इति कश्चित् नास्ति] (मनुष्यादि पर्यायों में) 'यही' ऐसी कोई (शाश्वत पर्याय) नहीं हैं; [स्वभावनिर्वृत्ता क्रिया नास्ति न] (क्योंकि संसारी जीव के) स्वभाव-निष्पन्न क्रिया नहीं हो, सो बात नहीं है; [यदि] और यदि [परमः धर्मः निःफलः] परमधर्म अफल है तो [क्रिया हि अफला नास्ति] क्रिया अवश्य अफल नहीं है; (अर्थात् एक वीतराग भाव ही मनुष्यादि पर्यायरूप फल उत्पन्न नहीं करती; राग-द्वेषमय क्रिया तो अवश्य वह फल उत्पन्न करती है) ।