GP:प्रवचनसार - गाथा 116 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
यहाँ (इस विश्व में), अनादिकर्मपुद्गल की उपाधि के सद्भाव के आश्रय (कारण) से जिसके प्रतिक्षण विवर्त्तन होता रहता है ऐसे संसारी जीव को क्रिया वास्तव में स्वभाव निष्पन्न ही है; इसलिये उसके मनुष्यादिपर्यायों में से कोई भी पर्याय यही है ऐसी टंकोत्कीर्ण नहीं है; क्योंकि वे पर्यायें पूर्व-पूर्व पर्यायों के नाश में प्रवर्तमान क्रिया फलरूप होने से उत्तर-उत्तर पर्यायों के द्वारा नष्ट होती हैं । और क्रिया का फल तो, मोह के साथ मिलन का नाश न हुआ होने से मानना चाहिये; क्योंकि—प्रथम तो, क्रिया चेतन की पूर्वोत्तर दशा से विशिष्ट चैतन्य परिणाम स्वरूप है; और वह (क्रिया) जैसे—दूसरे अणु के साथ संबंध जिसका नष्ट हो गया है ऐसे अणु की परिणति द्विअणुक कार्य की निष्पादक नहीं है उसी प्रकार, मोह के साथ मिलन का नाश होने पर वही क्रिया—द्रव्य की परमस्वभावभूत होने से परमधर्म नाम से कही जाने वाली—मनुष्यादिकार्य की निष्पादक न होने से अफल ही है ॥११६॥