GP:प्रवचनसार - गाथा 118 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[णरणारयतिरियसुरा जीवा] मनुष्य, नारक, तिर्यंच, देव नामवाले जीव हैं । [खलु] वास्तव में । मनुष्यादि जीव कैसे हैं? [णामकम्मणिव्वत्ता] वे मनुष्य, नारक आदि अपने-अपने नामकर्म से रचित हैं । [ण हि ते लद्धसहावा] किन्तु जैसे माणिक्य से जड़े हुये सुवर्णकंकणो में वास्तव में माणिक्य की मुख्यता नहीं है, उसीप्रकार वे जीव ज्ञानानन्द एक शुद्धात्मस्वभाव को प्राप्त नहीं करते हुये प्राप्तस्वभाव वाले नहीं हैं; उसकारण स्वभाव का तिरस्कार कहा जाता है; जीव का अभाव स्वभाव का तिरस्कार नहीं है । वे जीव कैसे होते हुये प्राप्तस्वभाववाले (शुद्धोपयोगरूप अतीन्द्रियानन्दमय परिणमित) नहीं हैं? [परिणममाणा सकम्माणि] अपने उदय में आये हुये कर्मो के प्रति सुख-दुःख रूप से परिणमन करते हुये वे जीव प्राप्तस्वभाव वाले नहीं हैं ।
यहाँ अर्थ यह है - जैसे वृक्षसिंचन के विषय में प्रवाहित जल, चन्दन आदि वनों की पंक्तिरूप से परिणत होता हुआ अपने कोमल, शीतल, निर्मल आदि स्वभाव को प्राप्त नहीं होता है; उसीप्रकार यह जीव भी वृक्षों के समान कर्मों के उदय से परिणत होता हुआ उत्कृष्ट आह्लाद एक लक्षण सुखरूपी अमृत का आस्वाद, नैर्मल्य (सर्वविकार रहितता-निर्मलता) आदि अपने गुण-समूह को प्राप्त नहीं करता है ॥१२८॥