GP:प्रवचनसार - गाथा 123 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
जिससे चैतन्य वह आत्मा का स्वधर्म-व्यापकपना है, उससे चेतना ही आत्मा का स्वरूप है; उस रूप (चेतनारूप) वास्तव में आत्मा परिणमित होता है । आत्मा का जो कुछ भी परिणाम हो वह सब ही चेतना का उल्लंघन नहीं करता, ( अर्थात् आत्मा का कोई भी परिणाम चेतना को किंचित्मात्र भी नहीं छोड़ता—बिना चेतना के बिलकुल नहीं होता)—यह तात्पर्य है । और चेतना ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलरूप से तीन प्रकार की है । उसमें ज्ञान-परिणति (ज्ञानरूप से परिणति) वह ज्ञान-चेतना, कर्म-परिणति वह कर्मचेतना और कर्म-फल-परिणति वह कर्मफल-चेतना है ॥१२३॥