GP:प्रवचनसार - गाथा 128 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
वास्तव में द्रव्य लोकत्व और अलोकत्व के भेद से विशेषवान है, क्योंकि अपने-अपने लक्षणों का सद्भाव है । लोक का स्वलक्षण षड्द्रव्य समवायात्मकत्व (छह द्रव्यों का समुदायस्वरूपता) है और अलोक का केवल आकाशात्मकत्व (मात्र आकाशस्वरूपत्व) है । वहाँ, सर्व द्रव्यों में व्याप्त होने वाले परम महान आकाश में, जहाँ जितने में गतिस्थिति धर्म वाले जीव तथा पुद्गल गति-स्थिति को प्राप्त होते हैं, (जहाँ जितने में) उन्हें, गति-स्थिति में निमित्तभूत धर्म तथा अधर्म व्याप्त होकर रहते हैं और (जहाँ जितने में) सर्व द्रव्यों को वर्तना में निमित्तभूत काल सदा वर्तता है, वह उतना आकाश तथा शेष समस्त द्रव्य उनका समुदाय जिसका स्परूपता से स्वलक्षण है वह लोक है; और जहाँ जितने आकाश में जीव तथा पुद्गल की गति-स्थिति नहीं होती, धर्म तथा अधर्म नहीं रहते और काल नहीं वर्तता, उतना केवल आकाश जिसका स्वरूपता से स्वलक्षण है, वह अलोक है ॥१२८॥