GP:प्रवचनसार - गाथा 128 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[पोग्गलजीवणिबद्धो] अणु व स्कन्ध के भेद से भेद वाले पुद्गल और उसीप्रकार अमूर्तत्व, अतीन्द्रियज्ञानमयत्व, विकाररहित उत्कृष्ट आनन्द एक सुखमयत्व आदि लक्षण वाले जीव-इसप्रकार जीव और पुद्गलों से निबद्ध-सम्बद्ध-भरा हुआ होने से पुद्गल-जीव- निबद्ध है । [धम्मा] धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और काल-धर्माधर्मास्तिकाय-काल उनसे आढ्य-भरा हुआ होने से धर्माधर्मास्तिकायकालाढ्य है । [जो] जो इन पाँच का ऐसा समुदाय-राशि-समूह [वट्टदि] वर्तता है- रहता है । वह समूह किसमें रहता है? [आगासे] अनन्तानन्त आकाश द्रव्य के मध्य में स्थित लोकाकाश में वह समूह रहता है । [सो लोगो] वह पहले कहा हुआ पाँचों का समूह और उसका आधारभूत लोकाकाश- इसप्रकार छह द्रव्यों का समूह लोक [भवति] है । छह द्रव्यों का समूह लोक कहाँ-कब है? [सव्व काले दु] सभी कालों में-हमेशा छह द्रव्यों का समूह लोक है ।
उससे बाहर अनन्तानन्त आकाश-अलोक है- ऐसा अभिप्राय है ॥१३८॥