GP:प्रवचनसार - गाथा 12 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब चारित्र परिणाम के साथ सम्पर्क रहित होने से जो अत्यन्त हेय है ऐसे अशुभ-परिणाम का फल विचारते हैं :-
जब यह आत्मा किंचित् मात्र भी धर्मपरिणति को प्राप्त न करता हुआ अशुभोपयोग परिणति का अवलम्बन करता है, तब वह कुमनुष्य, तिर्यंच और नारकी के रूप में परिभ्रमण करता हुआ (तद्रूप) हजारों दुःखों के बन्धन का अनुभव करता है; इसलिये चारित्रके लेशमात्र का भी अभाव होने से यह अशुभोपयोग अत्यन्त हेय ही है ॥१२॥
इसप्रकार यह भाव (भगवान कुन्दकुन्दाचार्य देव) समस्त शुभाशुभोपयोग-वृत्ति को (शुभ उपयोगरूप और अशुभ उपयोगरूप परिणति को) अपास्त कर (हेय मानकर, तिरस्कार करके, दूर करके) शुद्धोपयोग-वृत्ति को आत्मसात् (आत्मरूप, अपने-रूप) करते हुए शुद्धोपयोग अधिकार प्रारम्भ करते हैं । उसमें (पहले) शुद्धोपयोग के फल की आत्मा के प्रोत्साहन के लिये प्रशंसा करते हैं ।