GP:प्रवचनसार - गाथा 12 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[असुहोदयेण] अशुभ-कर्म के उदय से, [आदा] आत्मा, [कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो] कुमनुष्य, तिर्यंच, नारकी होकर । इन रूप होकर आत्मा क्या करता है? [दुक्ससहस्सेहिं सदा अभिंधुदो भमदि अच्चंतं] हजारों दु:खों से हमेशा पीड़ित होता हुआ संसार में दीर्घ काल तक घूमता रहता है ।
वह इसप्रकार- निर्विकार शुद्धात्म तत्त्व की रुचि-रूप निश्चय सम्यग्दर्शन तथा उसी मे निर्विकल्प मनोवृत्तिरूप निश्चयचारित्र से विरुद्ध लक्षण वाले विपरीत मान्यता के उत्पादक, देखे हुए, सुने हुए, भोगे हुए विषयों की इच्छा सम्बन्धी तीव्र संक्लेश परिणाम-रूप अशुभोपयोग से बंधे हुये पाप-कर्मों के उदय में यह आत्मा सहज-शुद्धात्मा के आश्रय से उत्पन्न आनन्द है स्वलक्षण जिसका, ऐसे पारमार्थिक-सुख से विपरीत दुःख से दुखी होता हुआ आत्मस्वभाव की भावना से रहित होकर संसार में दीर्घकाल तक घूमता रहता है- यह तात्पर्य है ॥१२॥
इस प्रकार शुभादि तीनों उपयोगों के फल को बताने वाले चौथे सथल में दो गाथायें समाप्त हुई ।
(अब शुद्धोपयोग के फल अनन्तसुख और शुद्धोपयोगी पुरुषका लक्षण बताने वाला, दो गाथाओं में निबद्ध पाँचवाँ स्थल प्रारम्भ होता है ।)
अब
- शुभोपयोग और अशुभोपयोग- इन दोनों को निश्चयनय से हेय जानकर अधिकार प्रारम्भ करते हुए शुद्धात्म-भावना को आत्मसात् करने वाले-शुद्धोपयोगी जीव के प्रोत्साहन के लिये शुद्धोपयोग का फल प्रकाशित करते हैं-
- अथवा द्रितीय पातनिका- यद्यपि शुद्धोपयोग का फल ज्ञान और सुख आगे संक्षेप-विस्तार से कहेंगे तथापि यहाँ पीठिका में भी सूचना करते हैं -
- अथवा तृतीय पातनिका- पहले (ग्यारहवीं गाथा मे) शुद्धोपयोग का फल निर्वाण कहा था, अब निर्वाण का फल अनन्त सुख कहते हैं -