GP:प्रवचनसार - गाथा 130 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
द्रव्य का आश्रय लेकर और पर के आश्रय के बिना प्रवर्तमान होने से जिनके द्वारा द्रव्य ‘लिंगित’ (प्राप्त) होता है—पहिचाना जा सकता है, ऐसे लिंग गुण हैं । वे (गुण), ‘जो द्रव्य हैं वे गुण नहीं हैं, जो गुण हैं वे द्रव्य नहीं हैं’ इस अपेक्षा से द्रव्य से अतद्भाव के द्वारा विशिष्ट (भिन्न) रहते हुए, लिंग और लिंगी के रूप में प्रसिद्धि (परिचय) के समय द्रव्य के लिंगत्व को प्राप्त होते हैं । अब, वे द्रव्य में ‘यह जीव है, यह अजीव है’ ऐसा भेद उत्पन्न करते हैं, क्योंकि स्वयं भी तद्भाव के द्वारा विशिष्ट होने से विशेष को प्राप्त हैं । जिस-जिस द्रव्य का जो-जो स्वभाव हो उस-उसका उस-उसके द्वारा विशिष्टत्व होने से उनमें विशेष (भेद) हैं; और इसीलिये मूर्त तथा अमूर्त द्रव्यों का मूर्तत्व- अमूर्तत्वरूप तद्भाव के द्वारा विशिष्टत्व होने से उनमें इस प्रकार के भेद निश्चित करना चाहिये कि यह मूर्त गुण हैं और यह अमूर्तगुण हैं ॥१३०॥