GP:प्रवचनसार - गाथा 132 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
स्पर्श, रस, गंध और वर्ण इन्द्रियग्राह्य हैं, क्योंकि वे इन्द्रियों के विषय हैं । वे इन्द्रियग्राह्यता की व्यक्ति और शक्ति के वश से भले ही इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये जाते हों या न किये जाते हों तथापि वे एकद्रव्यात्मक सूक्ष्मपर्यायरूप परमाणु से लेकर अनेकद्रव्यात्मक स्थूलपर्यायरूप पृथ्वीस्कंध तक के समस्त पुद्गल के, अविशेषतया विशेष गुणों के रूप में होते हैं; और उनके मूर्त होने के कारण ही, (पुद्गल के अतिरिक्त) शेष द्रव्यों के न होने से वे पुद्गल को बतलाते हैं ।
ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये कि शब्द भी इन्द्रियग्राह्य होने से गुण होगा; क्योंकि वह (शब्द) विचित्रता के द्वारा विश्वरूपपना (अनेकानेकप्रकारत्व) दिखलाता है, फिर भी उसे अनेकद्रव्यात्मक पुद्गलपर्याय के रूप में स्वीकार किया जाता है ।
यदि शब्द को (पर्याय न मानकर) गुण माना जाये तो वह क्यों योग्य नहीं है उसका समाधान:—
प्रथम तो, शब्द अमूर्त द्रव्य का गुण नहीं है क्योंकि गुण-गुणी में अभिन्न प्रदेशपना होने से वे (गुण-गुणी) 1एक वेदन से वेद्य होने से अमूर्त द्रव्य को भी श्रवणेन्द्रिय का विषयभूतपना आ जायेगा ।
(दूसरे, शब्द में) पर्याय के लक्षण द्वारा गुण का लक्षण उत्थापित होने से शब्द मूर्त द्रव्य का गुण भी नहीं है । पर्याय का लक्षण कादाचित्कपना (अनित्यपना) है, और गुण का लक्षण नित्यपना है; इसलिये (शब्द में) अनित्यपने से नित्यपने के उत्थापित होने से (अर्थात् शब्द कभी-कभी ही होता है, और नित्य नहीं है, इसलिये) शब्द वह गुण नहीं है । जो वहाँ नित्यपना है वह उसे (शब्द को) उत्पन्न करने वाले पुद्गलों का और उनके स्पर्शादिक गुणों का ही है, शब्दपर्याय का नहीं,—इस प्रकार अति दृढ़तापूर्वक ग्रहण करना चाहिये ।
और, 'यदि शब्द पुद्गल की पर्याय हो तो वह पृथ्वी स्कंध की भांति स्पर्शनादिक इन्द्रियों का विषय होना चाहिये, अर्थात् जैसे पृथ्वीस्कंधरूप पुद्गलपर्याय सर्व इन्द्रियों से ज्ञात होती है उसी प्रकार शब्दरूप पुद्गलपर्याय भी सभी इन्द्रियों से ज्ञात होनी चाहिये' (ऐसा तर्क किया जाये तो) ऐसा भी नहीं है; क्योंकि
- पानी (पुद्गल की पर्याय है, फिर भी) घ्राणेन्द्रिय का विषय नहीं है;
- अग्नि घ्राणेन्द्रिय तथा रसनेन्द्रिय का विषय नहीं है और
- वायु घ्राण, रसना तथा चक्षुइन्द्रिय का विषय नहीं है ।
- पानी गंध रहित है (इसलिये नाक से अग्राह्य है),
- अग्नि गंध तथा रस रहित है (इसलिये नाक, जीभ से अग्राह्य है) और
- वायु गंध, रस तथा वर्ण रहित है (इसलिये नाक, जीभ तथा आँखों से अग्राह्य है);
- चन्द्रकांत-मणि को,
- अरणि को और
- जौ को
- जिसकी गंध अव्यक्त है ऐसे पानी की,
- जिसकी गंध तथा रस अव्यक्त है ऐसी अग्नि की और
- जिसकी गंध, रस तथा वर्ण अव्यक्त है ऐसी उदरवायु की
और कहीं (किसी पर्याय में) किसी गुण की कादाचित्क परिणाम की विचित्रता के कारण होने वाली व्यक्तता या अव्यक्तता नित्य द्रव्यस्वभाव का प्रतिघात नहीं करता । (अर्थात् अनित्यपरिणाम के कारण होने वाली गुण की प्रगटता और अप्रगटता नित्य द्रव्यस्वभाव के साथ कहीं विरोध को प्राप्त नहीं होती ।)
इसलिये शब्द पुद्गल की पर्याय ही है ॥१३२॥
1एक वेदन से वेद्य = एक ज्ञान से ज्ञात होने योग्य (नैयायिक शब्द को आकाश का गुण मानते हैं किन्तु यह मान्यता अप्रमाण है । गुण-गुणी के प्रदेश अभिन्न होते हैं, इसलिये जिस इन्द्रिय से गुण ज्ञात होता है उसी से गुणी भी ज्ञात होना चाहिए । शब्द कर्णेन्द्रिय से जाना जाता है, इसलिये आकाश भी कर्णेन्द्रिय से ज्ञात होना चाहिये । किन्तु वह तो किसी भी इन्द्रिय से ज्ञात होता नहीं है । इसलिये शब्द आकाशादि अमूर्तिक द्रव्यों का गुण नहीं है ।)
2चतुष्क = चतुष्टय, चार का समूह । (समस्त पुद्गलों में - पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन सब ही में स्पर्शादि चारों गुण होते हैं । मात्र अन्तर इतना ही हैं कि पृथ्वी में चारों गुण व्यक्त हैं, पानी में गंध अव्यक्त है, अग्नि में गंध तथा रस अव्यक्त है, और वायु में गंध, रस, तथा वर्ण अव्यक्त हैं । इस बात की सिद्धि के लिये युक्ति इसप्रकार है :- चन्द्रकान्तमणिरूप पृथ्वी में से पानी झरता है; अरणि की -लकड़ी में से अग्नि प्रगट होती है और जौ खाने से पेट में वायु उत्पन्न होती है; इसलिये (१) चन्द्रकांतमणिमें, (२) अरणि -लकड़ी में और (३) जौ में रहनेवाले चारों गुण (१) पानी में, (२) अग्नि में और (३) वायु में होने चाहिये । मात्र अन्तर इतना ही है कि उन गुणों में से कुछ अप्रगटरूप से परिणमित हुये हैं । और फिर, पानी में से मोतीरूप पृथ्वीकाय अथवा अग्नि में से काजलरूप पृथ्वीकाय के उत्पन्न होने पर चारों गुण प्रगट होते हुये देखे जाते हैं ।)