GP:प्रवचनसार - गाथा 135.1 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[एदाणि पंचदव्वाणि] ये पहले (१४५वीं) गाथा में कहे हुये जीवादि छह द्रव्य ही [उज्झिय-कालं तु] काल द्रव्य को छोड़कर [अत्थिकाय त्ति भण्णति] अस्तिकाय-पाँच-अस्तिकाय कहे जाते हैं । [काया पुण] - काय-और काय शब्द से क्या कहा गया है? [बहुप्पदेसाण पचयत्तं] बहुप्रदेशों का प्रचयपना-समूह काय शब्द से कहा गया है ।
यहाँ पाँच अस्तिकायों में जीवास्तिकाय उपादेय है, वहाँ भी पंच परमेष्ठीरूप पर्याय दशा उपादेय है, उसमें भी अरहन्त और सिद्ध दशा उपादेय है, उसमें भी सिद्ध दशा उपादेय है । वास्तव में तो रागादि सम्पूर्ण विकल्प समूहों के निषेध के समय सिद्ध जीव के समान अपना शुद्धात्म स्वरूप ही उपादेय है - ऐसा भाव है ॥१४६॥