GP:प्रवचनसार - गाथा 137 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
(भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य) स्वयं ही (१४० वें) सूत्र द्वारा कहेंगे कि आकाश के प्रदेश का लक्षण एकाणुव्याप्यत्व है (अर्थात् एक परमाणु से व्याप्त होना वह प्रदेश का लक्षण है); और यहाँ (इस सूत्र या गाथा में) ‘जिस प्रकार आकाश के प्रदेश हैं उसी प्रकार शेष द्रव्यों के प्रदेश हैं’ इस प्रकार प्रदेश के लक्षण की एकप्रकारता कही जाती है । इसलिये, जैसे एकाणुव्याप्य (एक परमाणु से व्याप्त हो ऐसे) अंश के द्वारा गिने जाने पर आकाश के अनन्त अंश होने से आकाश अनन्तप्रदेशी है, उसी प्रकार एकाणुव्याप्य (एक परमाणु से व्याप्त होने योग्य) अंश के द्वारा गिने जाने पर धर्म, अधर्म और एक जीव के असंख्यात अंश होने से वें—प्रत्येक असंख्यातप्रदेशी है । और जैसे अवस्थित प्रमाणवाले धर्म तथा अधर्म असंख्यातप्रदेशी हैं, उसी प्रकार संकोचविस्तार के कारण अनवस्थित प्रमाण वाले जीव के सूखे-गीले चमड़े की भाँति-निज अंशों का अल्पबहुत्व नहीं होता इसलिये असंख्यातप्रदेशीपना ही है ।
(यहाँ यह प्रश्न होता है कि अमूर्त ऐसे जीव का संकोचविस्तार कैसे संभव है? उसका समाधान किया जाता है:—)
अमूर्त के संकोचविस्तार की सिद्धि तो अपने अनुभव से ही साध्य है, क्योंकि (सबको स्वानुभव से स्पष्ट है कि) जीव स्थूल तथा कृश शरीर में, तथा बालक और कुमार के शरीर में व्याप्त होता है।
पुद्गल तो द्रव्यत: एकप्रदेशमात्र होने से यथोक्त (पूर्वकथित) प्रकार से अप्रदेशी है तथापि दो प्रदेशादि के उद्भव के हेतुभूत तथाविध (उस प्रकार के) स्निग्ध-रूक्षगुणरूप परिणमित होने की शक्तिरूप स्वभाव के कारण उसके प्रदेशों का उद्भव है; इसलिये पर्याय से अनेकप्रदेशीपने का भी संभव होने से पुद्गल को द्विप्रदेशीपने से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्तप्रदेशीपना भी न्याययुक्त है ॥१३७॥