GP:प्रवचनसार - गाथा 139 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
किसी प्रदेश-मात्र काल-पदार्थ के द्वारा आकाश का जो प्रदेश व्याप्य हो उस प्रदेश को जब परमाणु मन्द गति से अतिक्रम (उल्लंघन) करता है तब उस प्रदेशमात्र १अतिक्रमण के २परिमाण के बराबर जो काल-पदार्थ की सूक्ष्म-वृत्ति रूप 'समय' है वह, उस काल पदार्थ की पर्याय है; और ऐसी उस पर्याय से पूर्व की तथा बाद की ३वृत्तिरूप से प्रवर्तमान होने से जिसका नित्यत्व प्रगट होता है ऐसा पदार्थ वह द्रव्य है । इस प्रकार द्रव्य-समय (काल-द्रव्य) अनुत्पन्न-अविनष्ट है और पर्याय-समय उत्पन्नध्वंसी है (अर्थात् 'समय' पर्याय उत्पत्ति-विनाशवाली है ।) यह 'समय' निरंश है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो आकाश के प्रदेश का निरंशत्व न बने ।
और एक समय में परमाणु लोक के अन्त तक जाता है फिर भी 'समय' के अंश नहीं होते; क्योंकि जैसे (परमाणु के) विशिष्ट (खास प्रकार का) अवगाह परिणाम होता है उसी प्रकार (परमाणु के) विशिष्ट गति परिणाम होता है । इसे समझाते हैं :- जैसे विशिष्ट अवगाह परिणाम के कारण एक परमाणु के परिमाण के बराबर अनन्त परमाणुओं का स्कंध बनता है तथापि वह स्कंध परमाणु के अनन्त अंशों को सिद्ध नहीं करता, क्योंकि परमाणु निरंश है; उसीप्रकार जैसे एक कालाणु से व्याप्त एक आकाश-प्रदेश के अतिक्रमण के माप के बराबर एक 'समय' में परमाणु विशिष्ट गति-परिणाम के कारण लोक के एक छोर से दूसरे छोर तक जाता है तब (उस परमाणु के द्वारा उल्लंघित होने वाले) असंख्य कालाणु 'समय' के असंख्य अंशों को सिद्ध नहीं करते, क्योंकि 'समय' निरंश है ।
१अतिक्रमण = उल्लंघन करना
२परिमाण = माप
३वृत्ति = वर्तना सो परिणति है (काल पदार्थ वर्तमान समय से पूर्व की परिणति-रूप तथा उसके बाद की परिणति-रूप से परिणमित होता है, इसलिये उसका नित्यत्व प्रगट है