GP:प्रवचनसार - गाथा 13 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
- [अइसयं] अनादि संसार से देवेन्द्र आदि सम्बन्धी सुख से भी अपूर्व परम आह्लादमय होने से अतिशय स्वरूप है;
- [आदसमुत्थं] रागादि विकल्प रहित निज शुद्धात्मा के आश्रय से उत्पन्न होने के कारण आत्मोत्पन्न है
- [विसयातीदं] निर्विषय परमात्म-तत्त्व से विरुद्ध पाँच इन्द्रियों के विषयों से रहित होने के कारण विषयातीत है;
- [अणोवमं] निरुपम परमानन्द रूप एक लक्षण मय होने से उपमा रहित होने के कारण अनुपम है,
- [अणंतं] अनन्त भविष्यकाल में नष्ट नहीं होने से अथवा असीम होने से अनन्त है,
- [अवुच्छिण्णं च] और असातावेदनीय कर्म के उदय का अभाव हो जाने से हमेशा रहने के कारण विच्छेद रहित अव्याबाध है,
यहाँ यही सुख उपादेय रूप से निरन्तर भावना करने योग्य है - यह भाव है ।