GP:प्रवचनसार - गाथा 140 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[आगासमणुणिविट्ठं] -अणु से निविष्ट-पुद्गल से व्याप्त- घिरा हुआ आकाश । [आगासपदेससण्णया भणिदं] - आकाश प्रदेश के नाम से कहा गया है । [सव्वेसिं च अणुणं] - सभी परमाणुओं को और चकार शब्द से सूक्ष्म स्कन्धों को [सक्कदि तं देहुमवगासं] - वह आकाश-प्रदेश अवकाश (स्थान) देने में समर्थ है । उस आकाश-प्रदेश के, यदि इसप्रकार की स्थान देने की सामर्थ्य नहीं होती, तो अनन्तानन्त जीव राशि और उससे भी अनंतगुणी पुद्गल राशी असंख्यात प्रदेशी लोक में कैसे अवकाश (स्थान) प्राप्त करती? (नहीं कर सकती है) और उसे पहले विस्तार से कहा ही है ।
अब प्रश्न है कि- अखण्ड आकाश-द्रव्य के प्रदेशों का विभाग कैसे घटित होता है?
उसका उत्तर कहते हैं -- ज्ञानानन्द एक स्वभावी स्व-आत्मतत्व में परम एकाग्रता लक्षण-पूर्ण लीनतारूप समाधि से उत्पन्न विकार रहित आह्लाद एकरूप सुखसुधारस (सुखरूपी अमृतरस) के आस्वाद से तृप्त दो मुनिराजों के बैठने का स्थान क्या एक है अथवा अनेक है? यदि एक है, तो दोनों मुनिराजों के एकता प्राप्त होती - दोनों मिलकर एक हो जायेंगे । परन्तु वैसा तो है नहीं । और यदि उन दोनों मुनिराजों के बैठने का स्थान पृथक-पृथक् है, तो अखण्ड आकाश द्रव्य के प्रदेशों का विभाग विरुद्ध नहीं है -- ऐसा अर्थ है ॥१५१॥