GP:प्रवचनसार - गाथा 142 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
समय कालपदार्थ का वृत्यंश है; उस वृत्यंश में किसी के भी अवश्य उत्पाद तथा विनाश संभवित हैं; क्योंकि परमाणु के अतिक्रमण के द्वारा (समयरूपी वृत्यंश) उत्पन्न होता है, इसलिये वह कारणपूर्वक है । (परमाणु के द्वारा एक आकाशप्रदेश का मंदगति से उल्लंघन करना वह कारण है और समयरूपी वृत्यंश उस कारण का कार्य है, इसलिये उसमें किसी पदार्थ के उत्पाद तथा विनाश होते होना चाहिये ।)
(‘किसी पदार्थ के उत्पाद-विनाश होने की क्या आवश्यकता है? उसके स्थान पर उस वृत्यंश को ही उत्पाद-विनाश होते मान लें तो क्या हानि है?’ इस तर्क का समाधान करते हैं—)
यदि उत्पाद और विनाश वृत्यंश के ही माने जायें तो, (प्रश्न होता है कि—) (१) वे (उत्पाद तथा विनाश) युगपद् हैं या (२) क्रमश: ?
- यदि ‘युगपत्’ कहा जाये तो युगपत्पना घटित नहीं होता, क्योंकि एक ही समय एक के दो विरोधी धर्म नहीं होते । (एक ही समय एक वृत्यंश के प्रकाश और अन्धकार की भाँति उत्पाद और विनाश—दो विरुद्ध धर्म नहीं होते ।)
- यदि ‘क्रमश: है’ ऐसा कहा जाये तो, क्रम नहीं बनता, (अर्थात् क्रम भी घटता नहीं) क्योंकि वृत्यंश के सूक्ष्म होने से उसमें विभाग का अभाव है ।
यदि इस प्रकार उत्पाद और विनाश एक वृत्यंश में भी संभवित है, तो कालपदार्थ निरन्वय कैसे हो सकता है, कि जिससे पूर्व और पश्चात् वृत्यंश की अपेक्षा से युगपत् विनाश और उत्पाद को प्राप्त होता हुआ भी स्वभाव से अविनष्ट और अनुत्पन्न होने से वह (काल पदार्थ) अवस्थित न हो? (काल पदार्थ के एक वृत्यंश में भी उत्पाद और विनाश युगपत् होते हैं इसलिये वह निरन्वय अर्थात् खंडित नहीं है, इसलिये स्वभावत: अवश्य ध्रुव है ।)
इस प्रकार एक वृत्यंश में कालपदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाला है, यह सिद्ध हुआ ॥१४२॥