GP:प्रवचनसार - गाथा 149 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
प्रथम तो प्राणों से जीव कर्मफल को भोगता है; उसे भोगता हुआ मोह तथा प्रद्वेष को प्राप्त होता है; मोह तथा द्वेष से स्वजीव तथा परजीव के प्राणों को बाधा पहुँचाता है । वहाँ कदाचित् दूसरे के द्रव्य प्राणों को बाधा पहुँचाकर और कदाचित् बाधा न पहुँचाकर, अपने भावप्राणों को तो उपरक्तता से (अवश्य ही) बाधा पहुँचाता हुआ जीव ज्ञानावरणादि कर्मों को बाँधता है । इस प्रकार प्राण पौद्गलिक कर्मों के कारणपने को प्राप्त होते हैं ॥१४९॥