GP:प्रवचनसार - गाथा 150 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[आदा कम्ममलिमसो] - यह आत्मा स्वभाव से भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्म रूपी कर्ममल से रहित होने के कारण अत्यन्त निर्मल होने पर भी व्यवहार से अनादि (से चले आये) कर्मों के बन्ध-वश मलिन होता है । वैसा होता हुआ (मलिन होता हुआ) आत्मा क्या करता है? [धरेदि पाणे पुणो पुणो अण्णे] - बारम्बार दूसरे-दूसरे नवीन प्राणों को धारण करता है । जब तक क्या नहीं करता है? [ ण चयदि जाव ममत्तं] - स्नेह से रहित, चैतन्य चमत्कार परिणति से विपरीत, ममता (मेरेपन) को जितने समय तक (जब तक) नहीं छोड़ता है । वह किन विषयों में ममता को जब तक नहीं छोड़ता है? [देहपधाणेसु विसयेसु] - शरीर और विषयों से रहित उकृष्ट चैतन्य प्रकाशरूप परिणति से विपरीत, शरीर है प्रधान जिसमें ऐसे पाँचों इन्द्रियों के विषयों में जब तक ममता को नहीं छोड़ता है ।
इससे यह निश्चित हुआ कि शरीरादि में ममता ही इन्द्रिय आदि प्राणों की उत्पत्ति का अन्तरंग कारण है ॥१६२॥