GP:प्रवचनसार - गाथा 160 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
मैं शरीर, वाणी और मन को परद्रव्य के रूप में समझता हूँ, इसलिये मुझे उनके प्रति कुछ भी पक्षपात नहीं है । मैं उन सबके प्रति अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । यथा:—
- वास्तव में शरीर, वाणी और मन के स्वरूप का आधारभूत ऐसा अचेतन द्रव्य नहीं हूँ मैं स्वरूपाधार (हुए) बिना भी वे वास्तव में अपने स्वरूप को धारण करते हैं । इसलिये मैं शरीर, वाणी और मन का पक्षपात छोड़कर अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । और
- मैं शरीर, वाणी तथा मन का कारण ऐसा अचेतन द्रव्य नहीं हूँ । मैं कारण (हुए) बिना भी वे वास्तव में कारणवान् हैं । इसलिये उनके कारणपने का पक्षपात छोड़कर यह मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । और
- मैं स्वतंत्ररूप से शरीर, वाणी तथा मन का कर्ता ऐसा अचेतन द्रव्य नहीं हूँ मैं कर्ता (हुए) बिना भी वे वास्तव में किये जाते हैं । इसलिये उनके कर्तृत्व का पक्षपात छोड़कर यह मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । और
- मैं, स्वतन्त्ररूप से शरीर, वाणी तथा मन का कारक (कर्ता) ऐसा जो अचेतन द्रव्य है उसका प्रयोजक नहीं हूँ मैं कारक प्रयोजक बिना भी (अर्थात् मैं उनके कर्ता का प्रयोजक उनके कराने वाला हुए बिना भी) वे वास्तव में किये जाते हैं । इसलिये यह मैं उनके कर्ता के प्रयोजकत्व का पक्षपात छोड़कर अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । और
- मैं स्वतन्त्र ऐसे शरीर, वाणी तथा मन का कारक जो अचेतन द्रव्य है, उसका अनुमोदक नहीं हूँ मैं कारक-अनुमोदक बिना भी (उनके कर्ता का अनुमोदक हुए बिना भी) वे वास्तव में किये जाते हैं । इसलिये उनके कर्ता के अनुमोदकपने का पक्षपात छोड़कर यह मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूँ ॥१६०॥